गीता के 5 श्लोकों के माध्यम से आप क्रोध को जीत सकते हैं ?
श्रीकृष्ण उचावकाम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।। ३७।।
धूमेनाव्रियते वह्नर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। ३८।।
भावार्थ:- जिस प्रकार धुएँ से अग्नि , धूल से दर्पण तथा गर्भाशय से गर्भ ढ़का रहता है।ठीक उसी प्रकार इस काम के द्वारा ज्ञान ढ़का रहता है।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।। ३९।।
भावार्थ:- और हे कुन्तीपुत्र ! इस प्रकार व्यक्तियों का ज्ञान भी काम रूप शत्रु के द्वारा ढ़का रहता है जो कभी भी न पूर्ण होने वाले अग्नि के समान जलता रहता है।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। ४०।।
भावार्थ:- इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि यह सभी काम के निवास स्थान हैंं।
यह काम ही इन मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि के द्वारा ज्ञान को ढ़क करव्यक्ति को मोहित कर लेता है।
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।। ४१।।
भावार्थ:- इसलिए हे भरतवंशी ! सर्वप्रथम तुम इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने वाले इस महान पापी काम का अवश्य ही वद्ध करो।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।। ४२।।
भावार्थ:- इन्द्रियों को शरीर से श्रेष्ठ कहा जाता है ; इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है , मन से श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है, वह आत्मा है।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।। ४३।।
भावार्थ:- इस प्रकार हे महाबाहो ! बुद्धि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा अपने मन को वश में करके , तुम इस काम रूप दुर्जय शत्रु का वद्ध करो।
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2 Comments
Jay Shri Krishna 🙏
ReplyDeleteRadhe Radhe
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