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Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 3 (Karmayoga)

 

Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 3 (Karmayoga)

Gita Chapter 3



श्रीमद्भगवद्गीता (Geeta) में तृतीय अध्याय को कर्मयोग (Karmayoga) नाम से जाना जाता है इस अध्याय में भगवन श्री कृष्ण ने ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के अनुरूप आसक्ति रहित भाव से नियत कर्म करने का वर्णन किया है  


यज्ञादि कर्मो की आवश्यकता का वर्णन किया गया है साथ ही इस अध्याय में काम निरोध का वर्णन भी किया गया है अज्ञानी और ज्ञानी के लक्षण का वर्णन किया गया है साथ ही राग द्वेष से रहित होकर यथार्त कर्म करने की सलाह दी गई है



श्रीमद्भगवद्गीता तृतीय अध्याय -कर्मयोग

    श्लोक से

      अर्जुन उचाव 
    ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
    तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।। १।।


    अर्जुनः उवाच – अर्जुन बोले ; ज्यायसी – श्रेष्ठ; चेत् – यदि; कर्मणः – सकाम कर्म की अपेक्षा; ते – तुम्हारे द्वारा; मता – मानते  है; बुद्धिः – बुद्धि; जनार्दन – हे जनार्दन; तत् – वह ; किम् – क्यों फिर; कर्मणि – कर्म में; घोरे – भयंकर (घोर ); माम् – मुझे ; नियोजयसि –लगाते  ; केशव – हे कृष्ण। 


    भावार्थ:अर्जुन बोले हे जनार्दन ! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ मानते हैंं तो हे केशव मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं?



     व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
    तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।। २।।

    व्यामिश्रेण – अनेकों  उपदेश; इव – मानो; वाक्येन – शब्दों से; बुद्धिम् – बुद्धि; मोहयसि – मोहित हो रही है ; इव – मानो; मे – मेरी; तत् – अतः; एकम् – एक ; वाद – बात ; निश्र्चित्य – निश्चय करके; येन – जिससे; श्रेयः – अधिक  लाभ; अहम् – मुझे ; आप्नुयाम् – मुझे मिल जाय  । 


    भावार्थ:-आपके द्वारा दिए अनेकों  उपदेश से मेरी बुद्धि मोहित हो रही है। इसलिए निश्चय करके उस एक बात को बतायें जो मेरे लिए अधिक श्रेयस्कर हो।



      श्रीकृष्ण उचाव
    लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
    ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।। ३।।


    श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान बोले ; लोके – संसार में; अस्मिन् – इस; द्वि-विधा – दो प्रकार की; निष्ठा – श्रद्धा; पुरा – पहले; प्रोक्ता – पूर्व में बता चूका हूँ ; मया – मेरे द्वारा; अनघ – हे निष्पाप; ज्ञान-योगेन – ज्ञानयोग के द्वारा; सांख्यानाम् – ज्ञानियों का; कर्म-योगेन – कर्म योगियों  के द्वारा; योगिनाम् – योगियों का । 

    भावार्थ:- श्रीकृष्ण बोले – हे निष्पाप अर्जुन ! मैं पहले ही बता चुका हूँ कि इस संसार में दो प्रकार का निष्ठा है। उनमें सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग में और योगियों की निष्ठा कर्मयोग में होती है।



      कर्मणामनारम्भान्नेष्कम्र्यं पुरुषोऽश्रुते।
    सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।। ४।।


    – नहीं; कर्मणाम् – नियत कर्मों से ; अनाराम्भात् – विमुख होकर; नैष्कर्म्यम् – कर्मबन्धन से मुक्ति  ; पुरुषः – मनुष्य; अश्नुते – हो सकता  है ; – नहीं; – भी; संन्यसनात् – त्याग से; एव – केवल; सिद्धिम् – सिद्धि ; समधिगच्छति –  को प्राप्त हो सकता है। 

    भावार्थ:- मनुष्य तो नियत कर्मो से विमुख होकर कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है और केवल संन्यास से सिद्धि को प्राप्त हो सकता है।



      हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
    कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतेजैर्गुणैः।। ५।।

    – नहीं; हि – निश्चय ही; कश्र्चित् – कोई; क्षणम् – क्षण मात्र; अपि – भी; जातु – किसी समय  में; तिष्ठति – रहता है; अकर्म-कृत् – बिना कुछ किये; कार्यते – करने के लिए बाध्य होता है; हि – निश्चय ही; अवशः – विवश होकर; कर्म – कर्म; सर्वः – सभी ; प्रकृति-जैः – प्रकृति के गुणों से उत्पन्न; गुणैः – गुणों के द्वारा। 

    भावार्थ:- निश्चय ही कोई भी व्यक्ति क्षणमात्र केलिए बिना कर्म किए नहीं रह सकता ; क्योंकि सभी व्यक्ति प्रकृति के गुणों से उत्पन्न गुणों के द्वारा विवश होकर कर्म करने केलिए बाध्य होते है।



    श्लोक से १०

     कर्मेंन्द्रियाणि संयम्य आस्ते मनसा स्मरन्।
     
    इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः उच्यते।। ६।।

    भावार्थ:- जो मूढ़बुद्धि व्यक्ति सभी इन्द्रियों को वश में करता है, परन्तु मन द्वारा इन्द्रिय विषयों का चिंतन करता रहता है वह मिथ्याचारी कहलाता है।



     यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
     
    कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः विशिष्यते।। ७।।

    भावार्थ:- लेकिन हे अर्जुन  जो मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग  का पालन करता है ,वही श्रेष्ठ है।



     नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
    शरीरयात्रापि ते प्रसिद्ध्येदकर्मणः।। ८।।

    भावार्थ:- तुम नियत कर्तव्य कर्म करो, क्योंकि कर्म करने की अपेक्षा कर्म करना अधिक श्रेष्ठ है तथा कर्मो के बिना शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध हो सकता है।



     यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
    तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।। ९।।

    भावार्थ:- एकमात्र यज्ञ के निमित्त कर्मों को करना चाहिए ; अन्यथा दूसरे कर्मों में लगा हुआ व्यक्ति कर्मो के बंधनों से बंधता है इसलिए हे कुन्तीपुत्र! तुम आसक्ति से रहित होकर यज्ञ के निमित्त ही कर्मों को करो।



     सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा* पुरोवाच प्रजापतिः।
    अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।। १०।।

    भावार्थ:- समस्त प्राणियों के प्रजापति (ब्रह्मा) ने सृष्टि के आरम्भ में यज्ञसहित मनुष्यों तथा देवताओं को रचकर उनसे कहा कि तुमलोग इस यज्ञ के द्वारा अधिकाधिक समृद्ध होओ और यह यज्ञ तुमलोगों को समस्त इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने वाला हो।



    श्लोक ११ से १५

     देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
    परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। ११।।

    भावार्थ:- तुमलोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवतालोग तुमलोगों को प्रसन्न करें। इस प्रकार एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुमलोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगें।



     इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
    तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्न्क्ते स्तेन एव सः।। १२।।

    भावार्थ:- यज्ञ से प्रसन्न होकर देवतागण तुमलोगों को निश्चय ही इच्छित भोगों को प्रदान करेंगेंं। किन्तु जो व्यक्ति देवताओं द्वारा दिये गए भोगों को उनकों दिए बिना ही भोगता है, वह निश्चय ही चोर है।


     यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
     
    भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। १३।।

    भावार्थ:- जो भक्तगण यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाते है वे सभी तरह के पापों से मुक्त हो जाते है। परन्तु जो पापीजन इन्द्रियसुख केलिए अन्न पकाते है , वे तो घोरपाप को ही खाते हैं।



     अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
     
    यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।। १४।।

    भावार्थ:- सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं , अन्न का उत्पादन वर्षा से होता है, वर्षा यज्ञ के सम्पन्न होने से होता है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है।



     कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
     
    तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। १५।।

    भावार्थ:- नियत कर्मों को तुम वेद से उत्पन्न हुआ और वेद को साक्षात परब्रह्म से उत्पन्न हुआ जानों। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि परब्रह्म यज्ञ में सदा ही स्थित है।



    श्लोक १६ से २०

     एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
    अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ जीवति।। १६।।

    भावार्थ:- हे पार्थ ! जो व्यक्ति इस संसार में वेदों द्वारा स्थापित सृष्टि चक्र के अनुसार नहीं चलता है अर्थात नियत कर्मों का पालन नहीं करता है वैसा पापायु व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तृप्ति केलिए व्यर्थ ही जीता है।



     यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
    आत्मन्येव सन्तुष्टस्तस्य कार्यं विद्यते।। १७।।

    भावार्थ:- परन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनन्द लेते हुए और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट है , उसके लिए कोई कर्तव्य नहींं है।



     नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन
    चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।। १८।।

    भावार्थ:- उस व्यक्ति का इस संसार में तो कर्मों के करने का कोई प्रयोजन है और ही कर्मों के करने से कोई प्रयोजन रह जाता है। तथा उसका समस्त जीवों से भी कोई स्वार्थ सम्बन्ध नहीं रहता है।



     तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर
    असक्तो ह्याचरन्कर्मं परमाप्नोति पूरुषः।। १९।।

    भावार्थ:- इसलिए तुम आसक्तिरहित होकर निरंतर कर्तव्य कर्मों को करो।क्योंकि निश्चय ही जो व्यक्ति आसक्तिरहित हौकर कर्म करता है ,उसे परमात्मा की प्राप्ति होती है।



     कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
     
    लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।। २०।।

    भावार्थ:- जनक तथा अन्य राजाओं ने भी आसक्तिरहित कर्मों के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए है। इसलिए तथा सामान्य जनों का विचार करते हुए भी तुम कर्म करने के लिए ही योग्य हो।



    श्लोक २१ से २५

     यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
    यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।। २१।।

    भावार्थ:- श्रेष्ठ व्यक्ति जो-जो आचरण करता है, सामान्य जन भी वैसा ही आचरण करते हैंं। वह व्यक्ति जो कुछ भी प्रमाण करता है, सारा संसार उन्हीं का अनुसरण करने लगता हैं।



      मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
    नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्तं एव कर्मणि।। २२।।

    भावार्थ:- हे पार्थ ! मेरे लिए तीनों लोकों में तो कोई कर्तव्य है और ही कोई प्राप्त करने योग्य वस्तुओं की कमी है। तो भी मैं नियत कार्य में ही लगा रहता हूँ।



     यदि ह्यहं वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
    मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। २३।

    भावार्थ:- क्योंकि हे पार्थ ! यदि मैं सावधान होकर नियत कर्मों लगा रहूँ तो बहुत हानि होगी। क्योंकि सभी व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे ही पथ का अनुसरण करते हैं।



     उत्सीदेयुरिमे लोका कुर्या कर्म चेदहम्।
    सङ्करस्य कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजा।। २४।।

    भावार्थ:- क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों में लगा रहूँ तो सभी लोग नष्ट-भ्रष्ट हो जाँय। और मैं वर्णशंकर को उत्पन्न करने वाला हो जाऊँगा तथा समस्त प्राणियों को नष्ट करने का कारण बनूँगा।



     सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
    कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम्।। २५।।

    भावार्थ:- हे भारत ! जिस प्रकार अज्ञानी जन कर्मों में आसक्त होकर कर्म करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी जनों को चाहिए कि आसक्ति रहित होकर लोक कल्याण केलिए कर्म करें।



    श्लोक २६ से ३०

      बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
     
    जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। २६।।

    भावार्थ:- ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानी व्यक्तियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न करें। अपितु स्वयं शास्त्रानुसार समस्त कर्मों करते हुए उनसे भी वैसा ही करायें।



     प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
     
    अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। २७।।

    भावार्थ:- वास्तव में सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैंं तो भी अज्ञानी अहंकार से मोहित होकर समस्त कर्मों का कर्ता मैं हूँ ऐसा मान बैठता है।



     तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
    गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा सज्जते ।। २८।।

    भावार्थ:- हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के भेदों को अच्छी तरह जानने वाले ज्ञानयोगी कभी भी अपने आप को इन्द्रिय तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाते हैं।



     प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु
    तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।। २९।।

    भावार्थ:- प्रकृति के गुणों से मोहित हुए व्यक्ति भौतिक कर्मों में आसक्त रहते हैं। उस पूर्णरूप से नहीं समझने वाले मन्दबुद्धि व्यक्तियों को पूर्णरूप से समझने वाले व्यक्ति विचलित नहीं करें।



     मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
    निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।। ३०।।

    भावार्थ:- अपने सभी तरह के कर्मों को पूर्णरूप से मुझ परमात्मा में अर्पित करके आशारहित , ममतारहित तथा आलस्य रहित होकर युद्ध करो।



    श्लोक ३१ से ३५

     ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
    श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।। ३१।।

    भावार्थ:- जो कोई भी व्यक्ति मेरे इन बातों का ईष्र्यारहित होकर तथा श्रद्धा-भक्ति पूर्वक अनुसरण करता है , वे सभी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैंं।



     ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
    सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि  नष्टानचेतसः।। ३२।।

    भावार्थ:- परन्तु जो व्यक्ति ईष्र्यावश होकर मेरे इन बातों का अनुसरण नहीं करता है , उन अज्ञानियों को तुम्हें सभी प्रकार के ज्ञानों से रहित और नष्ट-भ्रष्ट हुए समझना चाहिए।



     सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
    प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ।। ३३।।

    भावार्थ:- ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति अनुसार कर्म करते है , क्योंकि सभी प्राणी अपने स्वभाव के अनुसार चेष्टा करता है। फिर दमन से क्या हो सकता है।



     इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
    तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।। ३४।।


    भावार्थ:- प्रत्येक इनद्रियों का इन्द्रियविषयों में आसक्ति और विरक्ति होता हैंं। व्यक्ति को चाहिए कि उन दोनों के वश में हो, क्योंकि ये दोनों ही कल्याण के मार्ग में शत्रु हैं।



     इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
    तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।। ३४।।


    भावार्थ:- दूसरों के धर्मों को भलीभाँति पालन करने से, अपना धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेयस्कर  हैं। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है तथा दूसरों का धर्म भय को उत्पन्न करने वाला है।



    श्लोक ३६ से ४०

      अर्जुन उचाव 
    अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
    अनिच्छन्नपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः।। ३६।।

    भावार्थ:- अर्जुन बोले – हे वृष्णिवंशी ! फिर व्यक्ति स्वयं चाहता हुआ भी किस से प्रेरित होकर पापकर्मों को करता है ? ऐसा प्रतित होता है उसे बलपूर्वक उसमें लगाया जा रहा है।



     श्रीकृष्ण उचावकाम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
    महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।। ३७।।

    भावार्थ:- श्रीकृष्ण बोले – रजोगुण से उत्पन्न होने वाला यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला  तथा भोगों से कभी तृप्त होने वाला और महान पापी है। इस संसार में तुम इसे ही महान शत्रु जानों।



     धूमेनाव्रियते वह्नर्यथादर्शो मलेन
    यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। ३८।।

    भावार्थ:- जिस प्रकार धुएँ से अग्नि , धूल से दर्पण तथा गर्भाशय से गर्भ ढ़का रहता है। ठीक उसी प्रकार इस काम  के द्वारा ज्ञान ढ़का रहता है।



     आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
    कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन ।। ३९।।

    भावार्थ:- और हे कुन्तीपुत्र ! इस प्रकार व्यक्तियों का ज्ञान भी काम रूप शत्रु के द्वारा ढ़का रहता है जो कभी भी पूर्ण होने वाले अग्नि के समान जलता रहता है।



     इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
     
    एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। ४०।।

    भावार्थ:- इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि यह सभी काम के निवास स्थान हैंं। यह काम ही इन मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि के द्वारा ज्ञान को  ढ़क कर व्यक्ति को मोहित कर लेता है।



    श्लोक ४१ से ४३

     तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
    पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।। ४१।।

    भावार्थ:- इसलिए हे भरतवंशी ! सर्वप्रथम तुम  इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने वाले इस महान पापी काम का अवश्य ही वद्ध करो।



     इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
    मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।। ४२।।

    भावार्थ:- इन्द्रियों को शरीर से श्रेष्ठ कहा जाता है ; इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है , मन से श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी   श्रेष्ठ है, वह आत्मा है।



     एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना
    जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।। ४३।।

    भावार्थ:- इस प्रकार हे महाबाहो ! बुद्धि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा अपने मन को वश में करके , तुम इस काम रूप दुर्जय शत्रु का वद्ध करो।


    श्रीमद्भगवद्‌गीता के अन्य सभी अध्याय :-

    1. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 1 (Visada Yoga)| विषाद योग
    2. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 2 (Sankhya-Yoga)|संख्यायोग
    3. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 3 (Karmayoga)। कर्मयोग
    4. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 4 (Gyan Karma Sanyas Yoga)|ज्ञान कर्म सन्यास योग
    5. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 5 (Karma Sanyasa Yoga)| कर्मसन्यास योग
    6. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 6 (Aatmsanyam Yoga) |आत्मसंयम योग


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    संदर्भ (References) :-

    श्रीमद्भगवद्गीता का प्रसार का श्रेय संतों को जाता है जिनमें से एक महान संत श्री हनुमान प्रसाद पोददार जी है , जिन्होंने गीता प्रेस को स्थापित किया गीता प्रेस ऐसी संस्था है जो बहुत ही कम ( लगभग के बराबर ) मूल्यों पर लोगों को धार्मिक पुस्तक उपलब्ध कराती है

    ऐसे ही एक और महान संत श्री श्रीमद सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी है जिन्होंने अंतराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की इन्होंने पश्चिम के देशों को भी कृष्णमय कर दिया इनके द्वारा लिखी पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप है जिसे पढ़कर बहुत से लोगों ने अपने जीवन का कल्याण किया

    ऐसे ही एक महान संत श्री परमहंस महाराज और उनके शिष्य श्री अड़गड़ानंद जी है। उन्होंने यथार्थ गीता नाम की पुस्तक लिखी है जिसमें उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में भगवद्गीता को समझाया है

    ऑनलाइन की दुनिया में सर्वप्रथम भगवद्गीता के सभी अध्यायों को लिखने का श्रेय हिंदी साहित्य मार्गदर्शन के संस्थापक निशीथ रंजन को जाता है

     

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