Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 13 :- अध्याय तेरह -“क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग “
इस अध्याय को क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ विभाग योग( Kshetra- Kshetragya- Vibhaga Yoga) नाम से जाना जाता है । इस अध्याय में क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीर के बारे में जानने वाले) ज्ञानी के बारे में बताया गया है । पाँच महाभूत, सुख – दुःख, चेतना एवं भावों के बारे में बताया गया है ।साथ ही इस अध्याय में जीवन और मृत्यु के रहस्य को समझाया गया है ।
श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय तेरह -“क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ” (
Kshetra- Kshetragya- Vibhaga Yoga)
अध्याय तेरह श्लोक १ से ५ तक
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ৷৷ 1 ৷৷
भावार्थ : भगवन श्रीकृष्ण बोले – हे कुन्तीपुत्र ! ज्ञानीलोग; इस शरीर को क्षेत्र तथा जो इस शरीर को जानने वाले है, उसे क्षेत्रज्ञ कहते है ।
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ৷৷ 2
৷৷
भावार्थ : हे भारत ! तुम सभी शरीरों का ज्ञाता मुझे जानो । इस शरीर (क्षेत्र) तथा इसको जानने वाले (क्षेत्रज्ञ) को जान लेना ही ज्ञान है । ऐसा मेरा मत है ।
( यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि, सभी शरीर के ज्ञाता भगवान है। जो इस शरीर को तथा इस शरीर को जानने वाले यानि भगवान को जनता है , वही ज्ञानी है।)
श्रीभगवानुवाच
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ৷৷ 3
৷৷
भावार्थ : अब वह सब तुम मुझसे संक्षेप में सुनो कि क्षेत्र क्या है , इसका क्या गुण है , यह कैसे बना है । तथा इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ कौन है और उसका क्या प्रभाव है ।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ৷৷ 4
৷৷
भावार्थ : बहुत से ऋषियों ने वैदिक ग्रंथो में अलग-अलग मन्त्रों द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन किया है । विशेष रूप से निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के वाक्यों द्वारा भी कहा गया है ।
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Bhagwat Geeta In Hindi सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ 5॥
भावार्थ : पांच महाभूत ( पृथ्वी ,जल , अग्नि , वायु तथा आकाश ), अहंकार , बुद्धि अव्यक्त प्रकृति ( तीनो गुणों की अप्रकट अवस्था ) , दस इन्द्रियों (आँख ,कान ,नाक ,जीव त्वचा ,वाणी ,हाथ ,पैर ,गुदा और लिंग ) मन तथा पांच इन्द्रियाँ के विषय (गंध , स्वाद , रूप , स्पर्श और शब्द ) तथा
अध्याय तेरह श्लोक ६ से १० तक
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ 6 ॥
भावार्थ : इच्छा ,द्वेष, सुख , दुःख और इस सबका समूह स्थूल शरीर ,चेतना तथा धैर्य । इस प्रकार विकारो के सहित यह क्षेत्र कहा जाता है ।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ 7॥
भावार्थ : विनर्मता , दंभाचरण का अभाव , अहिंशा , सहनशीलता , सरलता , आचार्यो का उपासना ,पवित्रता , दृढ़ता , मन और इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ 8॥
भावार्थ : इन्द्रियों द्वारा भोगों में आसक्ति का अभाव , अहंकार का अभाव ,जन्म ,मृत्यु, वृद्धावस्था , रोग तथा दुःख का बारम्बार चिंतन करना ।
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Bhagwat Geeta In Hindi – सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्
॥ 9॥
भावार्थ : पुत्र ,स्त्री , धन और गृह आदि के प्रति आसक्ति का अभाव तथा प्रिय और अप्रिय की स्थिति में हमेशा समान रहना ।
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ 10 ॥
भावार्थ : मेरी निरंतर अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति ,एकांत स्थान में रहने का स्वभाव , सामान्य लोगो के समूह में आसक्ति का नहीं होना ।
अध्याय तेरह श्लोक ११ से १५ तक
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ 11 ॥
भावार्थ : आत्म-साक्षात्कार की (नित्य स्थिति ) तथा तत्व ज्ञान के अर्थस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार – यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है ।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ 12 ॥
भावार्थ : अब मैं तुम्हे जो जानने योग्य है तथा जिसे जानकार व्यक्ति परम आनंद को प्राप्त होता है , उसे बताता हूँ । वह अनादि परब्रह्म न तो सत् और असत् ही है ।
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ 13 ॥
भावार्थ : वह सभी ओर हाथ – पैर , आँख, सिर , मुँह तथा कान वाले है क्योकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है ।
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सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
14 ॥
भावार्थ : वह समस्त इन्द्रियों के विषय को जानने वाले है , लेकिन वास्त्व में वह सभी इन्द्रियों से रहित है । आसक्तिरहित तथा गुणों से परे होने के बाद भी सभी का धारण- पोषण करने वाले और समस्त गुणों को भोगने वाले है ।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
15 ॥
भावार्थ : चर तथा अचर सभी जीवों के बहार तथा भीतर स्थित है । सूक्ष्म होने के करण वह भौतिक – इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान पड़ता है तथा अति समीप तथा दूर भी वही है ।
अध्याय तेरह श्लोक १६ से २० तक
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
16 ॥
भावार्थ : वह अविभाज्य है फिर भी सभी जीवों में अलग-अलग प्रतीत होते है । वह जानने योग्य , समस्त जीवों के पालनकर्ता, संहारकर्ता और उत्पन्न कर्त्ता भी है ।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
17 ॥
भावार्थ : वे समस्त ज्योतियों का भी ज्योति है एवं अंधकार से अत्यंत परे है । वह परमात्मा , ज्ञानस्वरूप,जाननेयोग्य तथा ज्ञान के द्वारा प्राप्त करने योग्य है । वह समस्त जीवों के हृदय में स्थित है ।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
18 ॥
भावार्थ : इस प्रकार मैंने क्षेत्र , ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का संक्षेप में वर्णन किया है । इसे समझकर मेरा भक्त मेरे साक्षात स्वरुप को प्राप्त होता है ।
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥
19 ॥
भावार्थ : प्रकृति और पुरुष दोनों को ही तुम अनादि जानों । समस्त विकार त्रिगुमायी प्रकृति से ही उत्पन्न हुआ है । ऐसा मानों ।
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Bhagwat Geeta In Hindi सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥
20 ॥
भावार्थ : समस्त कार्यों और कारणों को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है । और जीवात्मा सुख-दुःख के भोगने में हेतु कहा जाता है ।
अध्याय तेरह श्लोक २१ से २५ तक
श्रीभगवानुवाच
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥
21 ॥
भावार्थ : इस प्रकार पुरुष प्रकृति में रहकर प्रकृति से उत्पन्न गुणों का भोग करता हुआ और उस गुणों के संग के कारण ही जीवात्मा अच्छी-बुडी योनिओं में जन्म लेता हूँ ।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
22 ॥
भावार्थ : इस शरीर में रहते हुए वह पुरुष परमात्मा ही है।साक्षी होने से वह उपद्रष्टा और अनुमति प्रदान करने से अनुमता, सभी का धारण – पोषण करने से भर्ता , जीव रूप में भोक्ता , सभी का स्वामी होने से परमेश्वर और दिव्य होने से वह पुरुष परमात्मा कहलाता है |
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
23 ॥
भावार्थ : जो व्यक्ति पुरुष प्रकृति तथा प्रकृति के गुणों को अच्छी प्रकार समझ लेता है , वह सभी प्रकार से बरतता हुआ भी फिर नहीं जन्म लेता है।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
24 ॥
भावार्थ : उस परमात्मा को कितने ही व्यक्ति ध्यान के द्वारा अपने भीतर देखते है, कितने ही सांख्ययोग के द्वारा तो कितने ही निष्काम कर्मयोग के द्वारा देखते है ।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
25 ॥
भावार्थ : अन्य लोग जो अध्यात्मिक ज्ञान से रहित है , वे दुषरे महापुरुष जो तत्व को जानते है , उनके द्वारा सुनकर उपासना करते है, और श्रवण परायण व्यक्ति भी मृत्युरूपी संसार सागर से निःसंदेह तर जाते है ।
अध्याय तेरह श्लोक २६ से ३२ तक
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥
26 ॥
भावार्थ : हे अर्जुन ! चर तथा अचर जो कुछ भी तुम्हे भी तुम्हे दिख रहा है ; यह सब तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न हुआ जानों ।
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥
27 ॥
भावार्थ : जो व्यक्ति समस्त जीवोँ में स्थित उस परमात्मा को नाशरहित और समभाव से देखता है वही यथार्थ देखता है ।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥
28 ॥
भावार्थ : जो व्यक्ति परमात्मा को सभी जगह तथा समभाव से देखता है , वह अपने द्वारा स्वयं को कभी नष्ट नहीं करता है । इसलिए वह परमगति को प्राप्त होते है ।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥
29 ॥
भावार्थ : जब व्यक्ति जीवों के विभिन्न स्वरूपों को एक परमात्मा में देखता है और उस परमात्मा से ही सभी जीवों का विस्तार देखता है , उसी समय वह परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है ।
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Bhagwat Geeta In Hindi सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
30 ॥
भावार्थ : हे अर्जुन ! अनादि तथा दिव्य होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होते हुए भी वास्त्व में न तो कुछ करता है और न ही लिप्त होता है ।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
31 ॥
भावार्थ : जिस प्रकार आकाश सर्वव्यपी है तथा सूक्ष्म होने के कारण किसी लिप्त नहीं होता है , उसी प्रकार यह आत्मा निर्गुण होने के कारण शरीर में स्थित होते हुए भी शरीर से लिप्त नहीं होता है ।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
32 ॥
भावार्थ : हे अर्जुन ! जिस प्रकार एक सूर्य संपूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित कर देता है; उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण शरीर को प्रकाशित कर देता है ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
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