Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 12 (Bhakti Yoga) अध्याय बारह- भक्तियोग
अध्याय बारह- भक्तियोग
श्लोक १ से ५
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।।१।।
भावार्थ : अर्जुन बोले – जो भक्तगण निरंतर आपकी भक्ति में लगा रहता है या जो निराकार ब्रह्म की पूजा करता है ।
उन दोनों में किसे योगविद्या में ज्यादा निपुण माना जायगा ।
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ।।२।।
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण बोले -जो भक्तगण अपने मन को निरंतर मुझमें स्थिर करते है ; और अत्यंत श्रद्धापूर्वक मेरी पूजा करता हैं । मैं उसे अतिउत्तम योगी मानता हूँ ।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।३।।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।।४।।
भावार्थ : परन्तु जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में करके , सभी में संभव रखता है
तथा समस्त जीवों के कल्याण में लगा रहकर ; नित्य , निराकार ,अविनाशी ब्रह्म को एकाग्रचित होकर निरंतर भजता है ।अंत में मुझे ही प्राप्त होता है ।
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।।५।।
भावार्थ : जो व्यक्ति निराकार ब्रह्म के प्रति आसक्त रहता है , उनकों मुझे प्राप्त करना थोड़ा कठिन होगा;
क्योंकि देहधारियों को इस विधि द्वारा मुझे प्राप्त करना सदैव दुखदायक होता है।
श्लोक ६ से १०
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।।६।।
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
भावार्थ : लेकिंन जो भक्त संपूर्ण कर्मो को मुझमें अर्पित करता है तथा निरंतर मुझमें स्थिर होकर मेरे ध्यान में लगा रहता है ।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।।७।।
भावार्थ : हे पार्थ ! वैसे अनन्य प्रेमी भक्तों को मैं शीघ्र ही जन्म – मृत्यु के बंधनों से मुक्त करने वाला होता हूँ ।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ।।८।।
भावार्थ : अपने मन को मुझमें स्थिर करो, अपने बुद्धि को मुझमें लगाओं । उसके उपरांत तुम निश्चय ही मुझमें निवास करोगे ।
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।९।।
भावार्थ : हे धनंजय ( अर्जुन ) ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में असमर्थ हो तो अभ्यास रूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा रखों ।
** अभ्यास रूप योग :- भगवान के नामों का और गुणों का श्रवण , मनन , कीर्तन आदि का निरंतर अभ्यास करना ।
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०।।
भावार्थ : यदि तुम अभ्यास रूप योग करने में भी असमर्थ हो तो करवालमेरे लीये कर्म करने का प्रयत्न करो ।
इस प्रकार मेरे द्वारा बनाए कर्मो को करने से तुम मेरी सिद्धि को प्राप्त होगे ।
श्लोक ११ से १५
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ।।११।।
भावार्थ : यदि तुम मेरे द्वारा बनाय गए कर्मो को करने में भी असमर्थ हो तो अपने कर्मों के फल का त्याग करो तथा आत्मस्थित होने का प्रयास करो ।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।।
भावार्थ : बिना समझे अभ्यास रूप योग से ज्ञान श्रेष्ठ है , ध्यान से सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है,
क्योंकि त्याग से व्यक्ति को तत्काल ही शांति का अनुभव होता है ।
अर्जुन उवाच
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ।।१३।।
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।।१४।।
भावार्थ : सभी जीवों से समान प्रेम करने वाला , दयालु , अहंकार से रहित , सुख-दुःख में समभाव रहने वाला, क्षमावान , आत्मसंतुष्ट, आत्मसंयमी है तथा जो दृढ निश्चय के साथ मन और बुद्धि को मुझमें स्थिर करके; मेरी भक्ति में लगा रहता है।
इस प्रकार का भक्त मुझकों अत्यंत प्रिय है ।
श्रीभगवानुवाच
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ।।१५।।
भावार्थ : जिससे कोई भी जीव उद्विग्न नहीं होता ; साथ ही वह किसी जीव के द्वारा उद्विग्न होता है , जो हर्ष- अमर्ष , भय- चिंता में समभाव रहता है – ऐसा भक्त मुझकों अत्यंत प्रिय है ।
श्लोक १६ से २०
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।।१६।।
भावार्थ : जो व्यक्ति इच्छा से रहित है , शुद्ध, कुशल , चिंता से मुक्त , सभी कष्टों से मुक्त , सभी सभी प्रयासों का परित्याग करने वाला भक्त ; मुझे अत्यंत प्रिय है ।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ।।१७।।
भावार्थ : जो न कभी हर्षित होता है , न कभी द्वेष करता है , न कभी शोक करता है , न किसी चीज का इच्छा करता है तथा जो सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है ।
इस प्रकार का भक्त मुझकों अत्यंत प्रिय है ।
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ।।१८।।
भावार्थ : जो शत्रु तथा मित्र में समान है , मान तथा अपमान में , शर्दी तथा गर्मी में , सुख तथा दुःख में और जो दूषित संगति से रहित है ।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः !।१९।।
भावार्थ : जो निंदा तथा स्तुति को समान समझता है, जो मौन रहता है, जो जिस किसी तरह अपने शरीर का निर्वाह कर सदा संतुष्टरहता है,
जो अपनी बुद्धि को मुझमें स्थिर करके मेरी भक्ति में लगा रहता है। इस प्रकार का भक्त मुझकों अत्यंत प्रिय है ।
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ।।२०।।
भावार्थ : लेकिन जो भक्तजन श्रद्धा के साथ उपरोक्त प्रकार से कहे धर्मरूपी अमृत पथ पर पूर्णरूप से लगे रहते है ।वैसे भक्त मुझकों अत्यंत प्रिय है ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥
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हरे कृष्णा हरे कृष्णा
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हरे राम हरे राम
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