Shrimad
Bhagwat Geeta Chapter 7 (Gyana Vigyana Yoga) | “ज्ञानविज्ञानयोग”
श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय को ज्ञानविज्ञानयोग (Gyana Vigyana Yoga) नाम से जाना जाता है । इसमें सम्पूर्ण पदार्थ के मूल कारण एवं उनके स्वभावों का व्यापक वर्णन किया गया है । देवताओं की उपासना, प्रभाव और भक्तों के स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय सप्तम – ज्ञानविज्ञान योग
श्लोक १ से ५
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।१।।
भावार्थ : हे पार्थ ! मुझ में आसक्त मन वाला औऱ योग का निरंतर अभ्यास करते हुए जिस तरह तुम पूर्णरूप से मुझे संशयरहित जान सकोगे अब उसको सुनो । 1
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।२।।
भावार्थ : मैं तुम्हारे लिए इस दिव्यज्ञान को पूर्णरूप से कहूंगा जिसको जानकर इस संसार में फिर औऱ कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ।।३।।
भावार्थ : हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरे प्राप्ति केलिए प्रयत्न करता है औऱ उन प्रयत्न करने वालो में भी कोई एक मुझे वास्तविक रूप से जान पाता है ।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।४।।
भावार्थ : पृथ्वी , जल, अग्नि, वायु ,आकाश ,मन ,बुद्धि औऱ अहंकार – यह सब मेरी आठ प्रकार के पृथक – पृथक (अपरा ) शक्तियाँ हैं।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।५।।
भावार्थ : हे महाबाहो ! इस आठ प्रकार की अपरा प्रकृति, जिसे जड़ प्रकृति भी कहते हैं । इसके अतिरिक्त मेरी एक अन्य शक्ति है जिसे परा अर्थात चेतन प्रकृति जान , जिसने संपूर्ण संसार को धारण किया हुआ है ।
श्लोक ६ से १०
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।।६।।
भावार्थ : ऐसा जानों की संपूर्ण प्राणी इन दोनों अपरा औऱ परा प्रकृति से ही उत्पन्न होने वाले है । मैं ही इस संपूर्ण जगत का उत्पत्ति का कारण औऱ प्रलय हूँ अर्थात मूल कारण हूँ ।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७।।
भावार्थ : हे धनजय ! मेरे से परे अन्य कुछ भी नहीं है । जिस प्रकार मोती धागे में गुथा रहता है उसी प्रकार सब कुछ मुझसे ही है ।
श्रीभगवानुवाच
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।।८।।
भावार्थ : हे कौन्तेय ! मैं जल का स्वाद हूँ , सूर्य औऱ चन्द्रमा का प्रकाश हूँ ,सभी वेदो में ओमकार हूँ , आकाश में ध्वनि तथा पुरुषों में उनका शक्ति अर्थात सामर्थ्य हूँ ।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।।९।।
भावार्थ : मैं पृथ्वी की मूल सुगंध और अग्नि का तेज हूँ । मैं सभी जीवो में उनका जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ ।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।।१०।।
भावार्थ : हे पार्थ ! तुम सम्पूर्ण जीवों का शाश्वत बीज मुझको ही जानों । मैं बुद्धिमानों की बुद्धि तथा तपस्वियों का तेज हूँ ।
श्लोक ११ से १५
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।११।।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ ! मैं बलमनों की शक्ति (बल) जो आसक्ति और कामनाओं से रहित है । मैं ही वह काम हूँ जो धर्म की अनुकूल है ।
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।।१२।।
भावार्थ : और भी जो सत्वगुण ,रजोगुण और तमों गुण से उत्पन्न होने वाले भाव है , उन सबों को भी तुम मुझमें से ही उत्पन्न होने वाला जानों । किन्तु मैं प्रकृति के गुणों की अधीन नहीं हूँ , वे मेरे अधीन हैं ।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ।। १३ ।।
भावार्थ : इन तीनों गुणों की अधीन होकर यह सम्पूर्ण जगत मोहग्रस्त हो रहा है, जिस कारण वह मुझ अविनाशी परमात्मा को नहीं जान पाता।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। १४ ।।
भावार्थ : निश्च्य ही इन तीनों गुणों से युक्त मेरी माया से पार पाना अत्यंत कठिन है । किन्तु जो निरंतर मुझकों भजते है वो इन माया को पार कर जाते है ।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ।। १५ ।।
भावार्थ : माया के द्वारा जिनका ज्ञान खो चुका है ,ऐसे असुर स्वभाव वाले दुष्ट मुझको नहीं भजते है ।
श्लोक १६ से २०
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। १६ ।।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ ! नियत अर्थात उत्तम कर्म करने वाले “अर्थार्थी ” , दुःखों से छूटनेवाले “आर्त” , जानने की इच्छा वाले “जिज्ञासु ” और “ज्ञानी” ; ऐसे चार तरह के भक्त मुझकों भजते है ।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ।। १७ ।।
भावार्थ : उनमें भी जो ज्ञानी भक्त निरंतर मुझमें में एकीभाव से स्थित रहता है , उसे मैं अत्यंत प्रिय हूँ और मुझे वह अत्यंत प्रिय है ।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ।। १८ ।।
भावार्थ : ये सभी भक्त उदार है किन्तु मेरे मतानुसार ज्ञानी भक्त तो साक्षात् मेरा ही स्वरुप है – क्योकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी भक्त निश्चय ही भक्ति में तत्पर रहकर सर्वोच्च लक्ष्य मुझकों ही प्राप्त होता है ।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।१९ ।।
भावार्थ : अनेक जन्मों की बाद जिन्हें वास्तव में ज्ञान प्राप्त होता है वह सब कुछ मुझे ही समझता है और मुझकों ही भजता है । ऐसे महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है ।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।। २० ।।
भावार्थ : जिनलोगों का ज्ञान भोगों के कामना द्वारा हरा जा चुंका है , वे अपने – अपने स्वभाव के अनुसार भिन्न -भिन्न नियमों को धारण करके अन्य देवताओं को पूजते हैं ।
श्लोक २१ से २५
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।२१।।
भावार्थ : जो-जो भक्त जिस – जिस देवताओं की श्रद्धा पूर्वक पूजा करते है, मैं उस भक्त की उसी देवताओं श्रद्धा उत्पन्न्न करता हूँ ।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ।।२२।।
भावार्थ : वह भक्त उस श्रद्धा से समन्वित होकर उस देवता का पूजा करते है और उस देवता से मेरे द्वारा ही उस इच्छित भोगों को प्राप्त होता है।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।।२३।।
भावार्थ : अल्प बुद्धि व्यक्तियों का वह फल नाशवान है । वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते है । मेरे भक्तगण अंत में मुझको ही प्राप्त होते है ।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।२४।।
भावार्थ : अल्प ज्ञानी व्यक्ति मेरे इस अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पते है । वे मुझ अव्यक्त पुरुष को व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते है मतलब मनुष्य मानते हैं ।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।।२५।।
भावार्थ : अपनी योगमाया से मैं सबके लिए प्रकट नहीं होता हूँ । इसलिए अल्पबुद्धि व्यक्ति मुझे अविनाशी और अजन्मा के तरह नहीं जान पाते।
श्लोक २६ से ३०
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।
भावार्थ : हे अर्जुन ! मैं सरे जीवों की भूत भविष्य और वर्तमान को जनता हूँ ,लेकिन कोई भी श्रद्धा भक्ति से रहित व्यक्ति मुझको नहीं जान पाते ।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ।।२७।।
भावार्थ : हे भरतवंशी ! सभी जीव इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंदों से मोहग्रस्त होकर अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं ।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ।।२८।।
भावार्थ : परन्तु पुण्यकर्म करनेवाले जिन व्यक्तियों का पाप पूर्णतया नष्ट हो गया हैं , वे राग तथा द्वेष से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाते है और दृढ़ निश्चय से निरंतर मुझ को भजते है ।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ।।२९।।
भावार्थ : जो मेरा आश्रय लेकर जरा और मरण से छूटने केलिए प्रयत्न्न करते, ऐसे व्यक्ति उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण कर्म को नहीं जानते है ।
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ।।३०।।
भावार्थ : जो व्यक्ति अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ की सहित मुझे अंत समय में भी जानते है, जिनका मन निरंतर मुझमें लगा रहता है ,वे मुझे जानते है अर्थात प्राप्त होते है ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥
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बाहरी कड़ियाँ
(External Links):-
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श्रीमद्भगवद्गीता विकिपीडिया
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संस्कृत और हिंदी में श्रीमद्भगवद्गीता
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श्रीमद् भगवद्गीता का सरल हिन्दी में अनुवाद
संदर्भ
(References) :-
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रसार का श्रेय संतों को जाता है । जिनमें से एक महान संत श्री हनुमान प्रसाद पोददार जी है , जिन्होंने गीता प्रेस को स्थापित किया । गीता प्रेस ऐसी संस्था है जो बहुत ही कम ( लगभग न के बराबर ) मूल्यों पर लोगों को धार्मिक पुस्तक उपलब्ध कराती है ।
ऐसे ही एक और महान संत श्री श्रीमद ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी है । जिन्होंने अंतराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की । इन्होंने पश्चिम के देशों को भी कृष्णमय कर दिया । इनके द्वारा लिखी पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप है । जिसे पढ़कर बहुत से लोगों ने अपने जीवन का कल्याण किया ।
ऐसे ही एक महान संत श्री परमहंस महाराज और उनके शिष्य श्री अड़गड़ानंद जी है। उन्होंने यथार्थ गीता नाम की पुस्तक लिखी है । जिसमें उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में भगवद्गीता को समझाया है ।
ऑनलाइन की दुनिया में सर्वप्रथम भगवद्गीता के सभी अध्यायों को लिखने का श्रेय हिंदी साहित्य मार्गदर्शन के संस्थापक निशीथ रंजन को जाता है ।
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