Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 6 (Aatmsanyam Yoga) |आत्मसंयम योग
श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय को आत्मसंयम योग (Aatmsanyam Yoga) नाम से जाना जाता है । यह अध्याय आत्म कल्याण के लिए प्रेरित करता है एवं साथ ही विस्तर से धायनयोग और मन के निग्रह जैसे विषयों के बारे में बताया गया है । भगवत प्राप्त पुरुष के विशेषता बताये गए है और कैसे योगभ्रष्ट व्यक्ति स्वयं को ध्यानयोग की महिमा से पूर्ण कर सकता है ?
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय षष्ठम – “आत्मसंयम योग”
श्लोक १ से ५
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।। १ ।।
भावार्थ : श्रीभगवन बोले – जो पुरुष कर्मफल का आश्रय से रहित है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है , वह सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि को त्यागने वाला भी योगी नहीं है।
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ।। २ ।।
भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र ! जिसे ”सन्यास” ऐसा कहते है , उसको तुम योग जनों , क्योकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी व्यक्ति योगी नहीं होता है।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।। ३ ।।
भावार्थ : जिसने अभी योग प्रारंभ किया है उसके लिए निष्काम भाव से कर्म साधन कहलाता है। और जिसे योग प्राप्त हो गया है उसके लिए सभी भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहलाता है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ।। ४ ।।
भावार्थ : जिस काल में व्यक्ति न तो इन्द्रियों के भोगो में आसक्त होता है और न कर्मों में ही आसक्त होता है ,उस काल में सभी इच्छाओं का त्याग करने वाला व्यक्ति योगरूढ़ (योग में स्थित ) कहलाता है ।
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। ५ ।।
भावार्थ : मनुष्यों को चाहिए कि अपने मन के द्वारा अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले; क्योंकि आप स्वयं अपना मित्र है साथ ही अपना शत्रु भी ।
श्लोक ६ से १०
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। ६ ।।
भावार्थ : जिस व्यक्ति का मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है , उसके लिए वह मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है , उसके लिए वह शत्रु के समान है ।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। ७ ।।
भावार्थ : जिसने मन को जीत लिया है और मन को वश में करके जिसने शांति को प्राप्त की है । वही पूर्णरूप से परमात्मा को प्राप्त है । ऐसा व्यक्ति सुख – दुःख ,सर्दी – गर्मी और मान – अपमान में एक सा रहता है ।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ।। ८ ।।
भावार्थ : जिसका अंतःकरण ज्ञान – विज्ञान से तृप्त है , जिसकी स्थिति अचल और विकार रहित है , जिसकी इन्द्रियां पूर्णरूप से जीती हुई है तथा जिसके दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण एक समान है । वही भगवत प्राप्ति के लिए योग्य है और वही योगी है ।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ।। ९ ।।
भावार्थ : जो व्यक्ति स्वभाव से ही मित्र और शत्रु में पक्षपात से रहित है तथा ईर्ष्यालुओं और सम्बन्धियों में , धर्मात्माओं और पापियों में भी समान दृष्टि रखने वाला है । वैसा योग युक्त व्यक्ति अत्यंत श्रेष्ठ है ।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ।। १० ।।
भावार्थ : योगी को चाहिए कि वह मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में करें तथा आशारहित और संग्रहरहित होकर एकांत में निरंतर परमात्मा में ध्यान लगाए ।
श्लोक ११ से १५
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। ११ ।।
भावार्थ : आसन ऐसा हो जोकि शुद्ध भूमि में , जिसके ऊपर क्रमशः कुशा , मृगछाला और वस्त्र बिछा हो । जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा हो ।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।। १२ ।।
भावार्थ : उस आसन पर बैठकर मन और इन्द्रियों को वश में करके तथा मन को एकाग्र करके हृदय को शुद्ध करने केलिए योगाभ्यास करें ।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।। १३ ।।
भावार्थ : शरीर , सर और गर्दन को सीधा और स्थिर करके बैठ जाए। साथ ही अपने नासिका के अग्रभाग पर ध्यान केंद्रित करके अन्य दिशाओं में न देखता हुआ।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ।। १४ ।।
भावार्थ : ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित होकर तथा मन को पूर्णरूप से वश में करके भयरहित होकर मुझमे ध्यान लगाने वाला हो और वह मुझ में ही स्थित हो।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।। १५ ।।
भावार्थ : इस प्रकार जो लोग निरंतर मुझमें ही स्थित है । वह आनंद की पराकाष्ठा मतलब शांति को प्राप्त है ।
श्लोक १६ से २०
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।। १६ ।।
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन ! यह योग न तो बहुत खानेवाले का सिद्ध होता है और न बिलकुल नहीं खाने वालें का , न तो बहुत सोने वाले का और न ही अत्यंत जागने वाले का ही सिद्ध होता है ।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।। १७ ।।
भावार्थ : दुखों को नष्ट करने वाला यह योग तो उचित आहार – विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का तथा उचित मात्रा में सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है ।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ।। १८ ।।
भावार्थ : इस प्रकार योग के अभ्यास से वश में किया हुआ है मन जिसका तथा जिस काल में वह परमात्मा में पूर्णरूप से स्थित है , उस काल में संपूर्ण कामनाओं से रहित व्यक्ति योग में स्थित कहलाता है ।
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।१९ ।।
भावार्थ : जिस तरह वायु रहित स्थान पर रखा दीपक हिलता-डुलता नहीं है । उसी प्रकार परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के चित की कहीं गई है ।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।। २० ।।
भावार्थ : जिस समय में योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है और जिस समय में अपने आत्मा के द्वारा परमात्मा को देखता है तथा अपने आत्मा में ही संतुष्ट रहता है ।
श्लोक २१ से २५
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।।२१।।
भावार्थ : तथा इन्द्रियों से परे शुद्ध सुक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनंत आनंद है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित योगी परमात्मा को तत्व से जानकर उनसे कभी विचलित नहीं होता है , सदैव उन्हीं में स्थित रहता है ।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।२२।।
भावार्थ : परमात्मा की प्राप्तिरूपी जिस लाभ को प्राप्त होकर, उससे बड़ा दूसरा लाभ कोई नहीं मानता । ऐसी अवस्था को प्राप्त योगी बड़ी से बड़ी कठिनाई से भी विचलित नहीं होता ।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।२३।।
भावार्थ : जो दुःखरूप संसार के संयोग और वियोग से रहित है, उसी को योग कहा जाता है । उस योग को सभी को जानना चाहिए । वह योग न उकताये हुए मन से अर्थात उत्साह पूर्वक मन से करना कर्तव्य है ।
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।।२४।।
भावार्थ : इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि संकल्प से उत्पन्न होने वाले सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर , मन के द्वारा इन्द्रियों को अच्छी प्रकार वश में करके ।
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ।।२५।।
श्लोक २६ से ३०
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।२६।।
भावार्थ : यह स्थिर नहीं रहने वाला चंचल मन जिस – जिस कारण से सांसारिक पदार्थो का चिंतन करता है , उसे उस - उस विषय से हटाकर बारम्बार परमात्मा में ही लगाए ।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।।२७।।
भावार्थ : जिनका मन पूर्णरूप से शांत हो गया है , साथ ही जिनका रजोगुण शांत हो गया है , ऐसे परमात्मा में स्थित योगी परम आनंद को प्राप्त होता है ।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।।२८।।
भावार्थ : इस प्रकार योगाभ्यास में प्रवृत रहकर आत्मसंयमी योगी सभी भौतिक विकारों से मुक्त रहता है और सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति के अनंत आनंद का अनुभव करता है ।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।२९।।
भावार्थ : सच्चा योगी सभी जीवों में मुझको तथा मुझ में सभी जीवों को देखता है । ऐसा योगयुक्त सम्भाव से देखने वाला व्यक्ति सभी जगह मुझ परमात्मा को ही देखता है ।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।३०।।
भावार्थ : जो सभी जगह मुझको और सब कुछ में मुझको देखता है उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है ।
श्लोक ३१ से ३५
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।३१।।
भावार्थ : जो व्यक्ति एकीभाव से प्रत्येक जीवों के हृदय में स्थित मुझ परमात्मा को भजता है , वह योगी सभी प्रकार से बरतता हुआ भी मुझ में ही स्थित रहता है ।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।३२।।
भावार्थ : हे अर्जुन ! जो योगी सभी जीवों को अपने जैसे देखता है और सुख तथा दुःख को भी सभी में समान देखता है, वही पूर्ण योगी है ।
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ।।३३।।
भावार्थ : अर्जुन ने कहा – हे मधुसुधन ! यह योग जो आप पहले बताए है ,जिसे आपने समभाव कहा है । मन के चंचल होने के कारण मुझे यह स्थायी नहीं लगता है ।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।३४।।
भावार्थ : हे कृष्णा ! क्योंकि मन बड़ा चंचल , क्षुब्द करने वाला , दृढ तथा अत्यंत बलवान है । इसलिए मुझे यह वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन प्रतीत होता है ।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।३५।।
भावार्थ : भगवान श्री कृष्णा बोले – हे महाबाहो ! निःसंदेह यह मन बड़ा चंचल और कठिनाई से वश में होने वाला है; किन्तु हे कुंती पुत्र ! यह अभ्यास तथा वैराग्य से वश में होने वाला है ।
श्लोक ३६ से ४०
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।।३६।।
भावार्थ : जिनका मन वश में नहीं है उनकें लिए योग का प्राप्त होना कठिन है ; और मन को वश में किए हुए प्रयत्नशील वक्तियो केलिए यह सहज है – ऐसा मेरा मत है ।
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।।३७।।
भावार्थ : अर्जुन बोले – हे कृष्णा ! जो योग में श्रद्धा रखते है ,किन्तु संयमी नहीं है ,तो ऐसा व्यक्ति योग सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है ।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।३८।।
भावार्थ : हे महाबाहो ! क्या ब्रह्म – प्राप्ति के मार्ग में विचलित हुआ मोहित व्यक्ति छिन्न – भिन्न बादल के भांति दोनों ओर से नष्ट -भ्र्ष्ट तो नहीं हो जाता है ?
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ।।३९।।
भावार्थ : हे कृष्णा ! मेरे इस संदेह को पूर्णरूप से मिटने केलिए आप ही सक्षम है । आपके सिवा दूसरा कोई भी इस संदेह को मिटाने वाला मिलना असंभव है ।
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।।४०।।
भावार्थ : श्री भगवान बोले – हे पार्थ ! उस व्यक्ति का न ही इस लोक में और न ही परलोक में ही नाश होता है ,क्योंकि हे मित्र शुभ कार्यों में लगा