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Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 1 (Visada Yoga)| विषाद योग

 Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 1 (Visada Yoga)|  विषाद योग


Gita Chapter 1


श्रीमद्भगवद्‌गीता (Geeta) में प्रथम अध्याय को " विषाद योग " ( Arjuna Vishad Yoga ) नाम से जाना जाता है।

इस अध्याय में धैर्यवान अर्जुन दोनों पक्षों में उपस्थित सेनाओं का निरिक्षण करते हैं
निरिक्षण के उपरांत अपने ही स्वजन, सागा- सम्बन्धियों, गुरुजनों को देख कर अर्जुन मोह से ग्रस्त हो जाते है।

और भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं  - हे गोविन्द मैं यह युद्ध नहीं करना चाहता हूँ ।





    श्रीमद्भगवद्‌गीता प्रथम अध्याय - " विषाद योग " ( Arjuna Vishad Yoga )

    ·   

    श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय विषाद योग ( Arjuna Vishad Yoga )

    प्रथम अध्याय श्लोक से


     धृतराष्ट्र उवाच -

     धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
    मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सज्ज्ञय ।। १।।


    धृतराष्ट्र: उवाच - धृतराष्ट्र बोले ; धर्म-क्षेत्रे - धर्मस्थल  में; कुरु-क्षेत्रे -कुरुक्षेत्र  में; समवेता: - एक जगह इकट्ठा  ; युयुत्सवः - लड़ने के इच्छुक; मामकाः -मेरे पक्ष (पुत्रों); पाण्डवा: - पाण्डु के पुत्रों ने; - तथा; एव - निश्चय ही; किम - क्या; अकुर्वत -किया; सञ्जय - हे संजय ।

    भावार्थ:- धृतराष्ट्र बोले हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में  युद्ध.की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पाण्डुपुत्रों ने क्या किया ?



      संजय उवाच  -
    दृष्टवा् तु पाण्डवानीकं व्युढं दुयोधनस्तदा
    आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।। २।।


    संजय: उवाच - संजय बोले ; दृष्ट्वा - होने देखा; तु - लेकिन; पाण्डव-अनीकम् - पाण्डवों की फौज को; व्यूढम् - व्यूहरचना को; दुर्योधनः - दुर्योधन ने; तदा - उस समय; आचार्यम् -  गुरु के; उपसङ्गम्य - समीप जाकर; राजा - राजा ; वचनम् - शब्द; अब्रवीत् - कहा;


    भावार्थ:- संजय बोले हे राजन ! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्युह रचना देखकर दुर्योधन अपने आचार्य (गुरू) के पास गए और ये  वचन कहे



     पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचायर्य महतींं चमूम्
    व्युढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।। ३।।


    पश्य - देख ; एतम् - इस; पाण्डु-पुत्राणाम् - पाण्डु के पुत्रों की; आचार्य -हे  गुरु ; महतीम् - महान; चमूम् - सेना को; व्यूढाम् - अच्छी तरह से (व्यवस्थित); द्रुपद-पुत्रेण - द्रुपद के पुत्र द्वारा; तव - तुम्हारे; शिष्येण - शिष्य द्वारा; धी-मता -  अति बुद्धिमान ।


    भावार्थ:- हे आचार्य! पाण्डु पुत्रोंं की इस विशाल सेना को देखिए, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र द्वारा व्यूह रचना में खड़ी कि गई है।



     अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि
    युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।। ४।।


    अत्र - यहाँ; शूराः - प्राकर्मी ; महेष्वासा (महा+इषु +आसा) - महान धनुर्धर; भीम-अर्जुन - भीम - अर्जुन; समा  - के समान (बराबर); युधि - युद्ध में; युयुधान - युयुधान; विराट - विराट; च - भी; द्रुपद - द्रुपद; च - भी; महारथ - दक्षता, निपुणता ।

    भावार्थ:- इस सेना में भीम तथा अर्जुन के समान अनेक शूर-वीर योद्धा हैंं जैसे महारथी युयुधान, विराट तथा द्रुपद



     ध्रृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्
    पुरूजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंग्वः ।। ५।।

    धृष्टकेतु: - धृष्टकेतु; चेकितानः - चेकितान; काशिराजः - काशिराज; - भी; वीर्यवान् - अत्यन्त बलवान; पुरुजित् - पुरुजित्; कुन्तिभोजः - कुन्तिभोज; - तथा; शैब्यः - शैब्य; - तथा; नरपुङ्गवः - पुरुष वर्ग के प्रतिभाशाली

    भावार्थ:- साथ ही धृष्टकेतु , चेकितान , काशिराज , पुरूजित , कुन्तिभोज तथा शैब्य जैसे पराक्रमी योद्धा भी हैं



    प्रथम अध्याय श्लोक से १०

     युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्
    सौभद्रो द्रोपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ।। ६।।


    युधामन्युः - युधामन्यु; - भी ; विक्रान्तः - प्रतापी ; उत्तमौजाः - उत्तमौजा; च - तथा; विर्यवान् - अत्यन्त बलवान; सौभद्रः - सुभद्रा के  पुत्र; द्रौपदेवाः - द्रोपदी के पुत्र; च - तथा; सर्वे - सब ; एव - अवश्य ही; महारथाः - महारथी । 


    भावार्थ:पराक्रमी युधामन्युअत्यन्त साहसी उत्तमौजा सुभद्रापुत्र अभिमन्यु तथा द्रोपदी के पुत्र सभी पराक्रमी हैं।



     अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्बिजोत्तम
    नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ।। ७।।


    अस्माकम् - हमारे; तु - लेकिन; विशिष्टाः - श्रेष्ठ; ये - जो; निबोध -  जान लीजिये, द्विज-उत्तम - प्राणियों में उत्तम (ज्ञानी व्यक्ति); नायकाः - सेनानायक, ; मम - मेरी; सैन्यस्य - सेना के; संज्ञा-अर्थम् - जानकारी के लिए; तान् - उन्हें; ब्रवीमि - बता रहा हूँ; ते - आपको ।


    भावार्थ:हे महराज ! अपने पक्ष में भी जो जो प्रमुख है उनको जानिए आपकी जानकारी के लिए सेना के जो जो सेनापति है उनको बतलाता हुँ



     भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंञ्जयः।
    अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव ।। ८।।

    भवान् - स्वयं आप; भीष्मः - भीष्म ; - भी; कर्णः - कर्ण; च - और; कृपः - कृपाचार्य; - तथा; समितिञ्जयःसदैव संग्राम-विजयी; अश्र्वत्थामा - अश्र्वत्थामा; विकर्णः - विकर्ण; च - तथा; सौमदत्तिः - सोमदत्त का पुत्र; तथा - भी; एव - अवश्य ही; - भी।

    भावार्थ:- महराज स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वथामा, विकर्ण, सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा आदि जो सदैव युद्ध में विजयी रहे हैं।



     अन्ये बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः
    नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।। ९।।

    अन्ये - अन्य सभी; - भी; बहवः - अनेक; शूराः - वीर; मत्-अर्थे - मेरे लिए; त्यक्त-जीविताः - जीवन का त्याग करने वाले; नाना - अनेक; शस्त्र - हथियार; प्रहरणाः - से युक्त ; सर्वे - सभी; युद्ध-विशारदाः - युद्ध में निपुण ।

    भावार्थ:- ऐसे अनेक वीर योद्धा हैंं जो मेरे लिए जीवन त्यागने के लिए उत्साहित हैं वे सभी विभिन्न प्रकार के हथियारों से सुसज्जित तथा युद्धकला में निपुण हैं। 



     अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्मभिरक्षितम्
    पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्  ।। १०।।


    अपर्याप्तम् - काफी नहीं है (असीमित); तत् - वह; अस्माकम् - हमारी; बलम् - शक्ति; भीष्म - भीष्म द्वारा; अभिरक्षितम् - अच्छी तरह संरक्षित; पर्याप्तम् - काफी (सीमित); तु - लेकिन; इदम् - यह सब; एतेषाम् - पाण्डवों की; बलम् - शक्ति; भीम - भीम द्वारा; अभिरक्षितम् - अच्छी तरह सुरक्षित ।

    भावार्थ:- पितामह भीष्म द्बारा रक्षित यह सेना सब प्रकार से सुरक्षित हैं, तथा भीम द्बारा संरक्षित वह सेना जितने में सुगम हैं।



    प्रथम अध्याय श्लोक ११ से १५


     अयनेषु सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
    भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ।। ११।।

    अयनेषु - सामरिक महत्व का स्थल वह स्थान जहाँ से शत्रु की सैनिकों में; - भी; सर्वेषु - सभी जगह ; यथा-भागम् - अपने-अपने स्थानों पर; अवस्थिताः - स्थित; भीष्मम् - भीष्म पितामह की; एव - निश्चय ही; अभिरक्षन्तु - सहायता करनी चाहिए; भवन्तः - आप; सर्वे - सभी ; एव हि - अवश्य ही।


    भावार्थ:- इसलिए सभी लोग अपनी अपनी जगह स्थित रहतेंं हुए भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।



     तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
    सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मौ प्रतापवान् ।। १२।।

    तस्य – उसका; सञ्जयनयन् – बढाते हुए; हर्शम् – हर्ष; कुरु-वृद्धः – कुरुवंश में वयोवृद्ध ; पितामहः – पितामह ; सिंह-नादम् – सिंह की तरह ; विनद्य – गरज कर; उच्चैः - उच्च आवाज़  से; शङखम् – शंख; दध्मौ – बजाया; प्रताप-वान् – प्रतापी । 

    भावार्थ:कुरूवंश में सबसे वृद्ध  पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करतें हुए सिंह के गर्जना के समान शंख बजाया



     ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः
    सहसेवाभ्यहन्यन्त शब्दस्तुमुलोऽभवत् ।। १३।।


    ततः – उसके बाद ; शङखाः – शंख; भेर्यः –  ढोल, नगाड़े; च – तथा; पणव-आनक – ढोल तथा मृदंग; गोमुखाः – शृंग; सहसा – अचानक; एव – अवश्य ही।; अभ्यहन्यन्त – एकसाथ बजना ; सः – वह; शब्दः – शब्द ; तुमुलः – शोरपूर्ण; अभवत् – हो गया 


    भावार्थ:- उसके बाद शंख, बड़े-बड़े ढ़ोल, नगाड़े, शृंग आदि एक साथ ही सभी बजने लगे उनका वह शब्द अत्यंत भयानक था।



     ततः श़्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
    माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शख्ङौ प्रदध्मतुः।। १४।।

    ततः – उसके बाद; श्र्वैतैः – सफ़ेद ; हयैः – घोड़ों से; युक्ते – युक्त; महति – विराट (विशाल); स्यन्दने – रथ में; स्थितौ – विराजमान; माधवः – श्रीकृष्ण ( ने; पाण्डव – अर्जुन (पाण्डुपुत्र) ने; च – तथा; एव – अवश्य ही; दिव्यौ – दिव्य; शङखौ – शंख; प्रदध्मतुः – बजाये 

    भावार्थ:- उसके बाद सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठें भगवान श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए।



     पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
    पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।। १५।।


    पाञ्चजन्यम् – पाञ्चजन्य नाम का ; हृषीकेशः – हृषीकेश (इंद्रियों का संचालनकर्ता) ने; देवदत्तम् – देवदत्त नाम का शंख; धनम्-जयः – धनञ्जय (जिसने धन को जीता हो ) ने; पौण्ड्रम् – पौण्ड्र नाम का  शंख; दध्मौ – बजाया; महा-शङखम् – भीष्म शंख; भीम-कर्मा – विशाल कर्म करने वाले; वृक-उदरः – (अधिक खाने वाले ) भीम ने 

    भावार्थ:- भगवान श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्यं नामक, अर्जुन ने देवदत्त नाम वाले और वृकोदर भीम ने पौण्ड्र नाम वाले महाशंख बजाए।



    प्रथम अध्याय श्लोक १६ से २०

     अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
    नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। १६।।


    अनन्त-विजयम् – अनन्त विजय नाम का शंख; राजा – राजा; कुन्ती-पुत्रः – कुन्ती के पुत्र; युधिष्ठिरः – युधिष्ठिर; नकुलः – नकुल; सहदेवः – सहदेव ने; च – तथा; सुघोष-मणिपुष्पकौ – सुघोष तथा मणिपुष्पक नाम का   शंख

    भावार्थ:- कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नाम वाले और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मनिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए।



     काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी महारथः।
    धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।। १७।।


    काश्य – काशी के राजा ने; – तथा; परम-ईषु-आसः – महान धनुर्धारी ; शिखण्डी – शिखण्डी ने; च – भी; महा-रथः – हजारों से अकेले परास्त करने वाले; धृष्टद्युम्नः – धृष्टद्युम्न (राजा द्रुपद के पुत्र) ने; विराटः – विराट ने; च – भी; सात्यकिः – सात्यकि  ने; च – तथा; अपराजितः – जिसको कभी जीता न जा सके। 


    भावार्थ:महान धनुनधर काशिराज , महारथी शिखण्डी धृष्टद्युम्न, विराट और अजेय सात्यिक।



     द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
    सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक पृथक।। १८।।


    द्रुपदः – द्रुपद ; द्रौपदेयाः – द्रौपदी के पुत्रों ने; च – भी; सर्वशः – सब के सब ; पृथिवी-पते – हे राजन; सौभादः – सुभद्रापुत्र ; च – भी; महा-बाहुः – बड़े भुजाओं वाला; शङखान् – शंख; दध्मुः – बजाए; पृथक्-पृथक् – अलग अलग। 

    भावार्थ:- द्रुपद और द्रोपदी के सभी पुत्र तथा बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र एक-एक कर सभी ने अपने अपने शंख बजाए।



      घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्
    नभश्च पृथिवींं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ।। १९।।

    सः – उस; घोषः – घोसना  ने; धार्तराष्ट्राणाम् – धृतराष्ट्र के पुत्रों के; हृदयानि – हृदयों को; व्य्दारयत् – विदीर्ण कर दिया; नभः – आसमान ; – भी; पृथिवीम् – पृथ्वी को;– भी; एव – अवश्य ही; तुमुलः – शोरपूर्ण; अभ्यनुनादयन् – शानदार। 


    भावार्थ:- उन शंखों से उत्पन्न ध्वनि आकाश तथा पृथ्वी को गुंँजाते हुए धृतराष्ट्र के पक्ष वालें के हृदयों को विदीर्णकर दिया



     अथ व्यवस्थितान्दृष्टवा धार्तराष्ट्रन्कपिध्वजः।
    प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।
    हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।। २०।।


    अथ – उसके बाद ; व्यवस्थितान् – स्थित; दृष्ट्वा – देखकर; धार्तराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को; कपिध्वजः – जिस पर हनुमान ध्वज  है; प्रवृत्ते – कटिवद्ध; शस्त्र-सम्पाते – वाण चलाने के लिए; धनुः – धनुष; उद्यम्य – स्वीकारना ; पाण्डवः – पाण्डुपुत्र ने; हृषीकेशम् – श्रीकृष्ण ; तदा – उस समय; वाक्यम् – बोले ; इदम् – ये; आह – कहे; मही-पते – हे राजन 

    भावार्थ:- उसके बाद हनुमंत ध्वज से युक्त रथ पर बैठे पाण्डुपुत्र अर्जुन ने युद्ध के लिए उत्सुक धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को देखकर

    उस शस्त्र चलने के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण भगवान से यह वचन कहा



    प्रथम अध्याय श्लोक २१ से २५


     अर्जुन उवाच  -

    सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।
    यावदेतान्निरीक्षेऽडं योद्धुकामानवस्थितान् ।। २१।।
    कैर्मया सह योद्धव्वमस्मिन्रणसमुद्यमे ।। २२।।
      


    अर्जुनः उवाच – अर्जुन बोले ; सेन्योः – सेनाओं के; उभयोः – मध्य में; रथम् – रथ को; स्थाप्य –  खड़ा कीजिये ; मे – मेरे; अच्युत – हे परमात्मा ; यावत् – जब तक; एतान् – इन सभी ; निरीक्षे – देखलू ; अहम् – मैं; योद्धु-कामान् – युद्ध की अभिलासा रखने वालों को; अवस्थितान् – युद्धभूमि में जुटे ; कैः – किनसे ; मया – मेरे द्वारा; सः – एक साथ; योद्धव्यम् – युद्ध करना  है; अस्मिन् – इस; रन –  युद्ध में ; समुद्यमे – श्रम।


    अर्जुन बोले

    भावार्थ:- हे अच्युत ! कृपा कर मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले चलें ताकि मैं युद्ध की इच्छा  रखने वाले और मुझे इस युद्ध रूप व्यापार में किन-किन से युद्ध करना हैयह देख सकु। 



     योत्स्यामानानवेक्षेऽहं एतेऽन्न समागताः।
    धार्तराष्ट्रस्य दर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।। २३।।


    योत्स्यमानान् – युद्ध में भाग लेने वाले को; अवेक्षे – देखलू ; अहम् – मैं; ये – जो; एते – वे; अत्र – यहाँ; समागता – एक जगह ; धार्तराष्ट्रस्य – धृतराष्ट्र के पुत्र कि; दुर्बुद्धेः – दुर्बुद्धि (गलत बुद्धि जिसमें सबका नुकसान हो ); युद्धे – युद्ध में; प्रिय –  हीत (अच्छा); चिकीर्षवः – इच्छा  वाले। 


    भावार्थ:- मैं उनलोगो को देखना चाहता हुँ जो दुर्बुद्धि दुर्योधन का हित की इच्छा से यहाँ खड़े है।



     सञ्जय उवाच  -
    एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
    सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।। २४।।


    सञ्जयः उवाच – संजय बोले ; एवम् – इस प्रकार; उक्तः – कहे गये; हृषीकेशः – श्रीकृष्ण  ने; गुडाकेशेन – अर्जुन द्वारा; भारत – हे भरत के वंशज; सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों; मध्ये – बीच में; स्थापयित्वा – खड़ा करें  रथ-उत्तमम् – उत्तम रथ को। 


    संजय बोले

    भावार्थ:- हे भरतवंशी ! अर्जुन द्बारा इस प्रकार कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने दोनो पक्षो के बीच में रथ को लाकर खड़ा कर दिए।



     भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां महीक्षिताम्।
    उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ।। २५।।


    भीष्म – भीष्म ; द्रोण –  द्रोण; प्रमुखतः – के सामने ; सर्वेषाम् – सबों के; च – भी; महीक्षिताम् – दुनिया के प्रमुख राजा; उवाच – बोले ; पार्थ – हे पृथा के पुत्र; पश्य – देखो; एतान् – इन सभी को; सम्वेतान् – एक जगह  जमा हुए (एकठा); कुरुन् – कुरुवंश के लोग; इति – इस प्रकार 

    भावार्थ:भीष्म , द्रोण तथा सभी प्रमुख राजाओं के सामने श्रीकृष्ण ने कहा कि हे पार्थ यहाँ उपस्थित समस्त कुरुओं को देखों 



    प्रथम अध्याय श्लोक २६ से ३०

     तन्नापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान।
    आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौन्सखींस्तथा।
    श्र्वशुरान्सुहृदश्श्चैव सेनयोरुभयोरपि।। २६।।

    तत्र – वहाँ; अपश्यत् – देखा; स्थितान् – खड़े; पार्थः – पार्थ ने; पितृन् – पितरों (चाचा-ताऊ) को; अथ – भी; पितामहान – पितामहों को; आचार्यान् – गुरुवो को; मातुलान् – मामाओं को; भ्रातृन् – भाइयों को; पुत्रान् – पुत्रों को; पौत्रान् – पौत्रों को; सखीन् – दोस्तों को; तथा – और; श्र्वशुरान् – श्र्वसुरों को; सुहृदः – शुभचिन्तकों को; – भी; एव – अवश्य ही; सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों पक्षों की; अपि – सहित ।  

    भावार्थ:- अर्जुन वहाँ उपस्थित दोनों  पक्षो के मध्य अपने ताउओं, पितामहों, गुरुओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और अपने चाहने वालो को भी देखा।



     तान्समीक्ष्य कौन्तयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।
    कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।। २७।।


    तान् – उन सभी को ; समीक्ष्य – सामने देखकर ; सः – वह; कौन्तेयः – कुन्तीपुत्र; सर्वान् – सब प्रकार के; बन्धून् – सम्बन्धियों को; अवस्थितान् – स्थित; कृपया – करुणा के कारण; परया – अत्यधिक; आविष्टः – अभिभूत; विषीदन् – दुःख करता हुआ; इदम् – इस प्रकार; अब्रवीत् – बोला;

    भावार्थ:- तब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों  को देखकर करुणायुक्त होकर बोले।



     अर्जुन उवाच -
    दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण ययुत्सुं समुपस्थितम्।
    सीदन्ति मम गात्राणि मुखं परिशुष्यति।। २८।।


    अर्जुनः उवाच – अर्जुन बोले ; दृष्ट्वा – देख कर; इमम् – इन सभी  ; स्वजनम् – अपने लोग  को; कृष्ण – हे कृष्ण; युयुत्सुम् – युद्ध के अभिलासी ; समुपस्थितम् – उपस्थित; सीदन्ति – काँप रहे हैं; मम – मेरे; गात्राणि – शरीर के अंग; मुखम् – मुँह; च – भी; परिशुष्यति – सूख रहा है । 


    अर्जुन बोले

    भावार्थ:- हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देख मेरे शरीर में कंपन हो रहा है  तथा मुख भी सुखा जा रहा है।



     वेपथुश्व शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।
    गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।। २९।।

    वेपथुः – शरीर में कम्पन; – भी; शरीरे – शरीर में; मे – मेरे; रोम-हर्ष – रोमांच; च – भी; जायते –  हो रहा है; गाण्डीवम् – मेरा धनुष; गाण्डीव; स्त्रंसते – छूट रहा है; हस्तात् – हाथ से; त्वक् – त्वचा; च – भी; एव – अवश्य ही; परिदह्यते – जल रही है। 


    भावार्थ:- मेरे संपूर्ण शरीर में कम्पन हो रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरे हाथ से गाण्डीव (धनुष) भी छुटा जा रहा है



      शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव मे मनः।
    निमित्तानि पश्यामि विपरीतानि केशव ।। ३०।।

    – न हीं; च – भी; शक्नोमि – समर्थ हूँ; अवस्थातुम् – खड़े रहने में; भ्रमति – भूल रहा ; इव – समान; – तथा ; मे – मेरा; मनः – मन; निमित्तानि – कारण; च – भी; पश्यामि – देखता हूँ; विपरीतानि – उल्टा; केशव – हे कृष्ण। 

    भावार्थ:- मैं खड़ा रहने में भी असमर्थ हूँ तथा मेरा मन भ्रमित हो रहा है। हे केशव! मैं लक्षनो को भी विपरित ही देख रहा हूँ।



    प्रथम अध्याय श्लोक ३१ से ३५

      श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
    काङ्क्षे विजयं कृष्ण राज्यं सुखानि च।। ३१।।

    – न ही ; – भी; श्रेयः – कल्याण; अनुपश्यामि – मुझे यह नहीं दिख रहा है; हत्वा – मार कर; स्वजनम् – अपने ही लोगों को; आहवे – युद्ध में; – न तो; काङक्षे – आकांक्षा करता हूँ; विजयम् – विजय; कृष्ण – हे कृष्ण; – न तो; च – भी; सुखानि – उसका सुख; च – भी 

    भावार्थ:- है कृष्ण! युद्ध में अपने ही स्वजनों को मारने में मुझे कलयाण नहीं दिखता है । मुझेंं तो विजय की इच्छा है, ही राज्य तथा सुखोंं की।



     किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।
    येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।। ३२।।

    किम् – क्या; नः – ना ; राज्येन – राज्य से; गोविन्द – हे गोविन्द ; किम् – क्या; भोगैः – भोग से; जीवितेन – जीवन से; वा- या; येषाम् – किसका; अर्थे – भावना में; काङक्षितम् – इच्छित; नः – न ; राज्यम् – राज्य; भोगाः –  भोग; सुखानि – सुख; च – भी;


    भावार्थ:हे गोविन्द! मुझे  ऐसे राज्य, भोग अथवा जीवन से क्या लाभ ? क्योंकि जिनके लिए हम जितना चाहते हैं  वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं



      इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।
    आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव पितामहाः।
    मातुलाः श्र्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।। ३३।।

    ते – वे; इमे – ये; अवस्थिताः – स्थित; युद्धे – लड़ाई में; प्राणान् – जान को; त्यक्त्वा – एक तरफ त्याग  रहे; धनानि – धन को; च – भी; आचार्याः – गुरुजन; पितरः – पिता; पुत्राः – पुत्र  – और; एव – निश्चय ही; च – भी; पितामहाः – पितामह; मातुलाः – मामा लोग; श्र्वशुरा – श्र्वसुर; पौत्राः – पौत्र; श्यालाः – साले; सम्बन्धिनः – सम्बन्धी; तथा – तथा;

    भावार्थ:- गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पोत्रलोग, साले तथा  अन्य सभी सम्बन्धी अपना धन एवं प्राण देने केलिए तत्पर हैं।



     एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्रतोऽपि मधुसूदन
    अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।। ३४।।


    एतान् – इन  सब; न – न हीं; हन्तुम् – मारना; इच्छामि – चाहता हूँ; घ्रतः – मारे जाने पर; अपि – भी; मधुसूदन – हे मधुसूदन ; अपि – तो भी; त्रै-लोकस्य – तीनों लोकों के लिए ; राज्यस्य – राज्य के; हेतोः – जिस कारन; किम् नु – क्या बात है; महीकृते – पृथ्वी के लिए;


    भावार्थ:- हे मधुसूदन ! मेरी हत्या करने पर तथा तीनों  लोकों  के राज्य के लिए भी मैं इन्हें नहीं  मारना चाहता हूँ फिर पृथ्वी की क्या बात है ?



     निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।।
    पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ।। ३५।।

    निहत्य – मारकर; धार्तराष्ट्रान् – धृत राष्ट्र के पुत्रों को; नः – हमारी; का – क्या; प्रीतिः – प्रसन्नता; स्यात् – होगी; जनार्दन – हे जनार्दन;पापम् - पाप; एव – निश्चय ही; आश्र्येत् – लगेगा; अस्मान् – हम; हत्वा – मारकर; एतान् – इन सब; आततायिनः – आततायियों को; 

    भावार्थ:- हे जनार्दन ! इन धृतराष्ट्रके पुत्रों को मारने में हमें क्या प्रसन्नता मिलेगी ? इन पापियों को मारने पर तो  हमें पाप ही लगेगा।



    प्रथम अध्याय श्लोक ३६ से ४०

     तस्मान्नार्हा वयं हन्तु धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्
    स्वजनं  हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।। ३६।।

    तस्मात् – इसलिए; –  नहीं; अर्हाः – वो इसी लायक हैं (योग्य); वयम् – हम; हन्तुम – मारने के लिए; धार्तराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को; स-बान्धवान् – उनके मित्रों सहित; स्व-जनम् – अपने ही लोग ; हि – निश्चय ही; कथम् – कैसे; हत्वा – मारकर; सुखिनः – सुखी; स्याम – हम होंगे; माधव – हे माधव। 


    भावार्थ:- हे माधव ! हम अपने ही सम्बन्धी धृतराष्ट्रपुत्रोंं को मारने केलिए योग्य नहीं है ; क्योकिं अपने ही स्वजन को मारकर हमें कैसे सुख की प्राप्ती होगी।



     यद्यप्येते पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
    कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे पातकम्।। ३७।।

    यदि – यदि; अपि – भी; एते – इन; – नहीं; पश्यति - वह इसे देखता है; लोभ – लोभ से; उपहत – अभिभूत; चेतसः – मन की; कुल-क्षय – कुल  के नाश; कृतम् – किया हुआ; दोषम् – दोष को; मित्र-द्रोहे – मित्रों से विरोध करने में; – भी; पातकम् – पाप को;


    भावार्थ:- तथापि लोभ से ग्रसित हुए ये लोग कुल के नाशसे उत्पन्न दोषों को और मित्र विरोध में पाप को नहीं देखते।



     कथं ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
    कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्धिर्जनार्दन ।। ३८।।

    कथम् – क्यों; न – नहीं; ज्ञेयम् – यह ध्यान दिया जाना चाहिए ; अस्माभिः – हमसे; पापात् – पापों से; अस्मात् – इस से; निवर्तितुम् – दूर जाना के लिए; कुल-क्षय – वंश का नाश; कृतम् – हो जाने पर; दोषम् – अपराध; प्रपश्यद्भिः – जो देख रहे हैं उनके द्वारा; जनार्दन – हे जनार्दन। 

    भावार्थ:- परन्तु हे जनार्दन ! हमलोग जो कि कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानते है, तो क्यों हमें  इस पाप से छुटने केलिए विचार करना चाहिए ?



     कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
    धर्मे नष्टे कुलं कृतस्न्नमधर्मोऽभिभवत्युत।। ३९।।

    कुल-क्षये – वंश का नाश होने पर; प्रणश्यन्ति – नष्ट हो जाती हैं; कुल-धर्माः – वंश का धर्म ; सनातनाः – वे शाश्वत हैं; धर्मे – धर्म; नष्टे – नष्ट होने पर; कुलम् – कुल को; कृत्स्नम् – सम्पूर्ण; अधर्मः – अधर्म; अभिभवति – परिवर्तन देता है; उत –की अपेक्षा। 

    भावार्थ:- कुल के नाश होने से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म के नष्ट होने से संपूर्ण कुल में  भी  पाप फैल जाता है।



     अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रयः।
    स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः।। ४०।।


    अधर्म – अधर्म; अभिभावत् – मुख्यतः; कृष्ण – हे कृष्ण; प्रदुष्यन्ति – दूषित हो जाती हैं; कुलस्त्रियः – कुल की स्त्रियाँ; स्त्रीषु – महिला; दुष्टासु – दूषित होने से; वार्ष्णेय – हे वृष्णिवंशी; जायते – उत्पन्न होती है; वर्ण–सङकरः – चरित्र-संकर । 

    भावार्थ:- हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ने से कुल की स्त्रियाँ दूषित होती हैं हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने से वर्णशंकर उत्पन्न होते हैं।



    प्रथम अध्याय श्लोक ४१ से ४५

     सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां  कुलस्य
    पतिन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।। ४१।।

    सङकरः – संकरयुक्त ; नरकाय – नरक जैसा जीवन जीने केलिए ; एव – निश्चय ही; कुल-घ्नानाम् – कुल का वध करने वालों के; कुलस्य – कुल के; – भी; पतन्ति – गिर जाते हैं; पितरः – पितृगण; हि – अवश्य ही; एषाम् – इनके; पिण्ड – पिण्ड अर्पण की; उदक – तर्पण ; क्रियाः – क्रिया


    भावार्थ:- वर्णसंकर संपूर्ण कुल को नरक में ले जाने केलिए ही होता है। श्राद्ध और तर्पण  क्रिया लुप्त होने के कारण पितर लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं।




     दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
    उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्र्वताः।। ४२।।

    दोषैः – इस प्रकार के दोष से ; एतैः – इन सब; कुलघ्नानाम् – कुल का नाश  करने वालों का; वर्ण-सङकर – वर्णसंकर ; कारकैः – कारणों से; उत्साद्यन्ते – नष्ट हो जाते हैं; जाति-धर्माः – जाती-धर्म ; कुल-धर्माः – कुल का धर्म ; च – भी; शाश्र्वताः – सनातन

    भावार्थ:- इन वर्णसंकर के दोषों से सम्पूर्ण कुल , सनातन कुलधर्म तथा जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं



     उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
    नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। ४३।।


    उत्सन्न – नष्ट; कुल-धर्माणाम् – कुल का धर्म ; मनुष्याणाम् – आदमी  का; जनार्दन – हे कृष्ण; नरके – नरक में; नियतम् – सदा ; वासः – निवास; भवति – होता है; इति – इस प्रकार; अनुशुश्रुम –  पहले से मैनें सुना है। 

    भावार्थ:हे जनार्दन ! जिन मनुष्यों के समस्त कुलधर्म नष्ट हो गए हैं , वे जाने कितने समय तक नरक में वास करते हैं। ऐसा हमने सुना है।



     अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
    यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।। ४४।।

    अहो – ओह; बत – कितना आश्चर्य है की ; महत् – महान; पापम् – पाप  ; कर्तुम् – करने के लिए; व्यवसिता – निश्चय किया है; वयम् – हमने; यत् – क्योंकि; राज्य-सुख-लोभेन – राज्य सुख के लोभ के कारन ; हन्तुम् – मारने के लिए; स्वजनम् – अपने ही लोगों को; उद्यताः – तत्पर। 


    भावार्थ:- बहुत शोक की बात है। हमलोग इतने बड़े पाप को करने जा रहे हैं , जोकि राज्य और सुख के लोभ से अपने ही स्वजन को मारने केलिए उत्पन्न हुए हैं।



     यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
    धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।। ४५।।

    यदि – यदि; माम् – मुझको; अप्रतिकारम् – विरोध नहीं  करने के कारण; अशस्त्रम् – बिना हथियार के; शस्त्र-पाणयः – शस्त्रधारी; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे – युद्धभूमि में; हन्युः – मारें; तत् – वह; मे – मेरे लिए; क्षेम-तरम् – श्रेयस्कर; भवेत् – होगा। 

    भावार्थ:- यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ शस्त्र रहित को युद्धभूमि में मारे तोमरना भी अधिक कल्याणकारी होगा।


    तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
    श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः


    श्रीमद्भगवद्‌गीता के अन्य सभी अध्याय :-

    1. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 1 (Visada Yoga)| विषाद योग
    2. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 2 (Sankhya-Yoga)|संख्यायोग
    3. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 3 (Karmayoga)। कर्मयोग
    4. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 4 (Gyan Karma Sanyas Yoga)|ज्ञान कर्म सन्यास योग
    5. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 5 (Karma Sanyasa Yoga)| कर्मसन्यास योग
    6. Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 6 (Aatmsanyam Yoga) |आत्मसंयम योग

    संदर्भ (References)


    श्रीमद्‍भगवद्‍गीता का प्रसार का श्रेय संतों को जाता है । जिनमें से एक महान संत श्री हनुमान प्रसाद पोददार जी है , जिन्होंने गीता प्रेस को स्थापित किया । गीता प्रेस ऐसी संस्था है जो बहुत ही कम ( लगभग न के बराबर ) मूल्यों पर लोगों को धार्मिक पुस्तक उपलब्ध कराती है ।


    ऐसे ही एक और महान संत श्री श्रीमद ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी है । जिन्होंने अंतराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की । इन्होंने पश्चिम के देशों को भी कृष्णमय कर दिया । इनके द्वारा लिखी पुस्तक श्रीमद्‍भगवद्‍गीता यथारूप है । जिसे पढ़कर बहुत से लोगों ने अपने जीवन का कल्याण किया ।


    ऐसे ही एक महान संत श्री परमहंस महाराज और उनके शिष्य श्री अड़गड़ानंद जी है। उन्होंने यथार्थ गीता नाम की पुस्तक लिखी है । जिसमें उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में भगवद्‍गीता को समझाया है ।


    ऑनलाइन की दुनिया में सर्वप्रथम भगवद्‍गीता के सभी अध्यायों को लिखने का श्रेय हिंदी साहित्य मार्गदर्शन के संस्थापक निशीथ रंजन को जाता है ।


    Video Star plus के Mahabharat Serial से लिया गया है और voice youtube channel Divine Bansuri से लिया गया है ।

     राधे-राधे 🙏🙏🙏🙏🙏


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