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Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 4 (Gyan Karma Sanyas Yoga)|ज्ञान कर्म सन्यास योग

 

Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 4 (Gyan Karma Sanyas Yoga)|ज्ञान कर्म सन्यास योग

 

श्रीमद्भगवद्गीता (Geeta) में चतुर्थ अध्याय को ज्ञान कर्म सन्यास योग (Gyan Karma Sanyas Yoga) नाम से जाना जाता है इस अध्याय में भगवान् के प्रभाव और कर्मयोग का वर्णन किया गया है साथ ही योगी और महात्मा पुरुषों के लक्षण तथा उनकी महिमा का वर्णन भी है। कर्म और अकर्म क्या है ? ज्ञान की महिमा का भी वर्णन इस अध्याय में किया गया है


भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय ज्ञान कर्म सन्यास योग

श्लोक से

   श्रीभगवानुवाच  
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। ।।

श्रीकृष्ण बोले- मैनें इस अविनाशी योगविद्या को विवस्वान (सूर्यनारायण) से कहा था, विवस्वान ने मनुष्यों के पिता मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा था।



 एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।। २।।

हे शत्रुदमनकर्ता अर्जुन ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियोंं ने प्राप्त किया ; परन्तु उसके बाद बहुत काल बितने की वजह से यह योग पृथ्वी लोक से लुप्त हो गई है।



  एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।३।।

क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय मित्र हो , इसलिए यह अत्यंत प्राचीन योग आज मैनें तुमसे  कहा है ,जो कि निश्चय ही बड़ा उत्तम रहस्य है।

  अर्जुन उवाच  
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेताद्विजानीयां त्वसादौ प्रोक्तवानिति।।४।।


अर्जुन बोले – सूर्यनारायण विवस्वान का जन्म तो आपसे पहले हुआ हैंं, तो मैं इस बात को कैसे समझु कि आपने ही इस योग को कहा था।

  श्रीभगवान उवाच  
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि त्वं वेत्थ परन्तप ।।५।।


श्रीकृष्ण बोले हे शत्रुदमनकर्ता अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैंं। उन सबों को तुम नहीं जानते हो , परन्तु मैं जानता हूँ।

श्लोक से १०

 अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।६।।

यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर हूँ तो भी मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट लेता हूँ।


 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।।


हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब तब ही मैं अपने रूपों को रचता हूँ अर्थात लोगों के सम्मुख प्रकट लेता हूँ।


 परित्राणाय साधूनां विनाशाय दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।८।।

साधु-शंतों  का उद्धार करने केलिए , दुष्कर्म करने वालों का विनाश करने केलिए और पुनः धर्म की स्थापना करने केलिए मैं युग युग से प्रकट लेता हूँ


 जन्म कर्म मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।९।।

हे अर्जुन ! जो व्यक्ति यर्थार्थ रूप से  मुझको  इस प्रकार दिव्य जन्म और कर्म वाला  जान लेता है , वह व्यक्ति शरीर त्याग करने पर पुनः जन्म नहीं लेता है , अपितु मुझको  ही प्राप्त होता है।


 वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्धावमागताः।।१०।।


पूर्व में भी , जिनकी आसक्ति, भय और क्रोध सदा केलिए नष्ट हो गए है तथा जो पूर्णरूप से मुझमें स्थित है, उपरोक्त ऐसे अनेकों भक्त है जो ज्ञान के तप द्वारा पवित्र होकर मुझको प्राप्त हुए है।


श्लोक ११ से १५

 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।११।।

हे पार्थ ! जो व्यक्ति जिस भाव ( मार्ग ) से मेरी शरण में आते हैं , उन्हें मैं उसी भाव (मार्ग)  से स्वीकार करता हूँ। क्योंकि सभी व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे द्वारा निर्धारित मार्गोंं  का ही अनुसरण करते है।



 काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ।।१२।।

इस मनुष्य लोक में कर्मों के फलों के कामना वाले व्यक्ति देवताओं का पूजन करते है। क्योंकि निश्चय ही सकाम कर्म का  फल अति शीघ्र प्राप्त होता है।



 चातुर्वण्र्यं मयां सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

मेरे द्वारा ही मानव समाज को गुण तथा कर्मों के आधार पर चार वर्णों में विभाजन गया है यद्यपि मैं इन चार वर्णों का सृष्टि करने वाला हूँ , फिर भी तुम मुझ अविनाशी परमात्मा को अकर्ता ही जानों।



  मां कर्माणि लिम्पन्ति मे कर्मफले स्पृह्य।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न बध्यते ।।१४।।

कर्मों के फल में मेरी कामना नहींं रहती है इसलिए कर्मों का प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ता इस प्रकार जो व्यक्ति मुझको जानता है , वह कर्मों के बंधनों से नहीं बँधता।



 एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वां पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।१५।।

पूर्वकाल में भी मोक्ष प्राप्त व्यक्तियों द्वारा इसी प्रकार जानकर कर्म किए गए हैं। इसलिए तुम अपने पूर्वजों का अनुसनण करके अपनें कर्तव्यों का पालन करों।



श्लोक १६ से २०

 किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

कर्म क्या है ? और अकर्म क्या है ? इस विषय में बुद्धिमान व्यक्ति भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए कर्म क्या है इसे तुझे अच्छी प्रकार समझाकर कहूँगा, जिन्हें जानकर तुम सभी प्रकार के अशुभ से मुक्त हो जाओगें।



 कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।। १७।।

कर्म को भी समझना चाहिए,अकर्म को भी समझना चाहिए और विकर्म को भी समझना चाहिए।क्योंकि कर्मों की गति अत्यंत कठिन है।



 
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि कर्म यः।
बुद्धिमान्मनुष्येषु युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।१८।। 

जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और  सभी प्रकार के कर्मों में लगा रहकर भी वह दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है।



 यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पविर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।१९।। 

जो व्यक्ति सम्पूर्ण कर्मों के आरंभ और अनुष्ठान में कामना तथा संकल्प से रहित रहता है तथा जिसने सभी कर्मफलों को ज्ञानरूपी अग्नि द्वारा भस्म कर दिया हैं। उसे ज्ञानी भी पण्डित कहते है।



 त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।२०।।

जो व्यक्ति समस्त कर्मफलों का सर्वथा केलिए त्याग करनेवाला,आश्रयरहित तथा सदा संतुष्ट है। वह सभी प्रकार के कर्मों में लिप्त रहकर भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता है।



श्लोक १६ से २०

 निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वान्नाप्नोति किल्बिषम्।।२१।।

जिसने मन तथा बुद्धियों के द्वारा इन्द्रियों को जीत लिया है और केवल शरीर निर्वाह केलिए कर्म करता है। वैसा व्यक्ति संपूर्ण कर्मों को करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता हैं।



 यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ कृत्वापि निबध्यते।।२२।।

जो बिना किसी इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए लाभ से सदा संतुष्ट रहता है, ईष्र्या से रहित है, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों से रहित है तथा सफलता और असफलता दोनों में सम है। ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी कर्मों से नहीं बँधता है।



 गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।२३।। 

जो व्यक्ति आसक्ति से रहित हो गया है तथा जिसका मन और चित्त ज्ञान द्वारा नित्य परमात्मा में स्थित है वैसा व्यक्ति यज्ञ के रूप में कर्म करता है तथा उसके संपूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैंं।



 ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।२४।।

 जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है और अर्पित किया जानेवाला द्रव्य भी ब्रह्म है तथा जो पूर्णरूप से परब्रह्म मेंं लीन रहता है , निश्चय ही वह परमधाम (भगवद् धाम) को प्राप्त होता



 दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।।२५।।

दूसरे योगीजन विभिन्न प्रकार के यज्ञोंं द्वारा देवताओं की पूजा करते हैं और अन्य योगीजन ब्रह्मरूप अग्नि यज्ञ में ज्ञान द्वारा नित्य परमात्मा में लीन रहकर यज्ञ में हवन करते हैंं।



श्लोक २१ से २५

 श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।२६।।

कुछ योगीलोग श्रोत आदि सभी इन्द्रियों को संयमरूप अग्नियों में हवन करते है और अन्य योगीलोग शब्द आदि सभी विषयों का इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं।



 सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।२७।।

अन्य योगीलोग सभी इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राणों के समस्त क्रियाओं को ज्ञान द्वारा प्रकाशित संयम-योग रूप अग्नि में हवन करते हैं।



 द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।२८।।


तीक्ष्ण व्रतों का अनुष्ठान करके कुछ लोग द्रव्य सम्बन्धी यज्ञ करते है, कुछ तप यज्ञ करते है, कुछ अष्टांग योग करते है और कोई वेदादि शास्त्रों का अध्ययन द्वारा दिव्य ज्ञानरूप यज्ञ को करते है।


  अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽयानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।२९।।


कई अन्य योगीलोग अपानवायु में प्राण-वायु को हवन करते हैं , वैसे ही दूसरे योगीलोग प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते है तथा प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणायाम के अभ्यास में तत्पर रहते हैं।



 अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।३०।।

अन्य योगीलोग अल्प आहार करके प्राण को प्राणों में हवन करते है ये सभीलोग यज्ञों को जानकर पापों से मुक्त हो जाते हैं।



श्लोक २६ से ३०

 यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।।३१।।

हे कुरूश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञ से बचे हुए अमृत का उपयोग करने वाले योगीलोग सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैंं। और जो यज्ञो को नहीं करने वाले हैंं उनके लिए यह सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे हो सकता है?



 एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।।३२।।

इस प्रकार और भी बहुत से यज्ञ है जो ब्रह्म के मुख से उत्पन्न हुए हैं। उन सभी को तुम कर्म से उत्पन्न हुआ जानों ; इस प्रकार जानकर तुम कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगें।



 श्रेयानद्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।३३।।

हे शत्रुदमनकर्ता अर्जुन ! द्रव्यरूप यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है। और पार्थ ! संपूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते है।



 तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।३४।।

तुम उस ज्ञान को सत्यदर्शी ज्ञानियोंं के पास जाकर समझों। उनसे विनय पूर्वक, सेवा कर तथा जिज्ञासा पूर्ण भाव से प्रश्न करो। वे तुम्हें अवश्य ही उस ज्ञान का दर्शन कराएगें।



 यज्ज्ञात्वा पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।।३५।। 

हे अर्जुन ! उस ज्ञान को जानकर तुम अज्ञान से उत्पन्न मोह को नहीं प्राप्त होओगें। उस ज्ञान द्वारा संपूर्ण भूतों को अपने में और फिर मुझ परमात्मा में देखोगें।



श्लोक ३६ से ४२

 अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।३६।।

यदि तुम संपूर्ण पापियों से भी अधिक पाप करने वाले हो फिर भी तुम ज्ञानरूपी नाव के द्वारा पापरूपी समुद्र से पार कर जाओंगें।



 यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।३७।। 

क्योंकि हे अर्जुन ! जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईधन को भस्म कर देती है, ठीक उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि सपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है।



  हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।३८।।

निश्चिय ही इस संसार में ज्ञान के जैसा पवित्र कुछ भी नहीं है। योग में लगा व्यक्ति उस ज्ञान को उपयुक्त समय आने पर अपने अन्तर आत्मा में पाता है।



 श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ।।३९।।

जो व्यक्ति श्रद्धा से युक्त है, अपने इन्द्रियों को वश में किया हुआ है और उस ज्ञान को प्राप्त करने केलिए तत्पर है।वह उस ज्ञान को प्राप्त होता है और बिना विलम्ब किए परम शांति को प्राप्त होता हैंं।



 अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं ल़ोकऽस्ति परो सुखं संशयात्मनः।।४०।।

किन्तु जो अज्ञानी, श्रद्धा से रहित और संशययुक्त है वह अवश्य ही नष्ट हो जाता है ऐसे संशय युक्त व्यक्तियों केलिए ही यह लोक है, ही परलोक और सुख ही है।



 योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।४१।।

हे धनञ्जय ! जिस व्यक्ति ने योग के द्वारा अपने समस्त कर्मों का त्याग कर दिया है और ज्ञान द्वारा जिनकें सभी संशय नष्ट हो गए है। वैसा आत्म परायण व्यक्ति कर्मों से नहीं बँधता।



 तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।४२।।

इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! तुम अज्ञान से अपने हृदय में उत्पन्न इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार द्वारा काट कर कर्मयोग का आश्रय लेकर युद्ध केलिए खड़े हो जाओं।


ॐतत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः

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    संदर्भ (References)


    श्रीमद्‍भगवद्‍गीता का प्रसार का श्रेय संतों को जाता है । जिनमें से एक महान संत श्री हनुमान प्रसाद पोददार जी है , जिन्होंने गीता प्रेस को स्थापित किया । गीता प्रेस ऐसी संस्था है जो बहुत ही कम ( लगभग न के बराबर ) मूल्यों पर लोगों को धार्मिक पुस्तक उपलब्ध कराती है ।


    ऐसे ही एक और महान संत श्री श्रीमद ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी है । जिन्होंने अंतराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की । इन्होंने पश्चिम के देशों को भी कृष्णमय कर दिया । इनके द्वारा लिखी पुस्तक श्रीमद्‍भगवद्‍गीता यथारूप है । जिसे पढ़कर बहुत से लोगों ने अपने जीवन का कल्याण किया ।


    ऐसे ही एक महान संत श्री परमहंस महाराज और उनके शिष्य श्री अड़गड़ानंद जी है। उन्होंने यथार्थ गीता नाम की पुस्तक लिखी है । जिसमें उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में भगवद्‍गीता को समझाया है ।


    ऑनलाइन की दुनिया में सर्वप्रथम भगवद्‍गीता के सभी अध्यायों को लिखने का श्रेय हिंदी साहित्य मार्गदर्शन के संस्थापक निशीथ रंजन को जाता है ।


    Video Star plus के Mahabharat Serial से लिया गया है और voice youtube channel Divine Bansuri से लिया गया है ।

     राधे-राधे 🙏🙏🙏🙏🙏

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