Shrimad
Bhagwat Geeta Chapter 2 (Sankhya-Yoga)|संख्यायोग
Bhagavad Gita
श्रीमद्भगवद्गीता
(Geeta) में द्वितीय अध्याय को “संख्यायोग” (Sankhya-Yoga ) नाम से जाना जाता है ।
इस अध्याय में मोहग्रस्त अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण के बीच वार्तालाप होता है ।
साथ ही संख्यायोग की चर्चा, कर्मयोग की चर्चा तथा क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं ।
स्थिरबुद्धि पुरुषों के कौन – कौन से लक्षण हैं और साथ ही उनकी महिमा का भी वर्णन किया है
श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय – ” संख्यायोग ”
(Sankhya-Yoga)
द्वितीय अध्याय श्लोक १ से १०
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः
।। १।।
सञ्जयः उवाच – संजय बोले ; तम् – वह; तथा –और; कृपया – अनुग्रह करे ; आविष्टम् – अभिभूत; अश्रु-पूर्ण-आकुल – अश्रुओं से पूर्ण; ईक्षणम् – आँख ; विषीदन्तम् – शोकयुक्त; इदम् – यह; वाक्यम् – वचन; उवाच – कहा; मधु-सूदनः – हे मधुसूदन ।
भावार्थ:- संजय बोले – करुणा से युक्त , शोकयुक्त तथा अश्रुपूर्ण नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर भगवान मधुसूदन ने ये वचन बोलें ।
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन
।। २।।
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् बोले ; कुतः – कहाँ से; त्वा – तुमको; कश्मलम् – अज्ञान; इदम् – यह शोक; विषमे – इस विषम समय में ; समुपस्थितम् – प्राप्त हुआ; अनार्य – अनजान; जुष्टम् – आचरित; अस्वर्ग्यम् – जो उच्च लोकों में न ले जाने वाला; अकीर्ति – अपयश का; करम् – कारण; अर्जुन – हे अर्जुन।
भावार्थ:- श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन ! तुझे इस विषम स्थित में यह मोह कहाँ से प्राप्त हुआ ? क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्बारा आचरित है, न ही स्वर्ग को देने वाला है और न ही कीर्ति को ही करने वाला है।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वौत्तिष्ठ परन्तप
।। ३।।
क्लैब्यम् – नपुंसकता; मा स्म – मत; गमः – प्राप्त होओ ; पार्थ – हे पृथापुत्र; न – नहीं; एतत् – यह; त्वयि – तुमको; उपपद्यते – शोभा देता है; क्षुद्रम् – तुच्छ; हृदय – हृदय की; दौर्बल्यम् – दुर्बलता; त्यक्त्वा – त्याग कर; उत्तिष्ठ – खड़े हो जाओ ; परम्-तप – हे शत्रुओं का नाश करने वाले।
भावार्थ:- इसलिए हे पार्थ ! नपुंसकताओंं को मत प्राप्त होओ। तुझ में यह उचित नहीं जान पड़ता है। हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलताओं को त्यागकर युद्ध केलिए खड़े हो जाओ।
अर्जुन उचाव
कथं भीष्महं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन
।। ४।।
अर्जुनः उवाच – अर्जुन बोले ; कथम् – कैसे; भीष्मम् – भीष्म को; अहम् – मैं; संख्ये – युद्ध में; द्रोणम् – द्रोण को; च – भी; मधुसूदन – हे मधुसूदन; इषुभिः – तीरों से; प्रतियोत्स्यामि – मैं वापस लड़ूंगा; पूजा-अर्हौ – पूजा के योग्य; अरि-सूदन – हे अरिसूदन।
भावार्थ:- अर्जुन बोले – मैं युद्धभूमि में किस प्रकार भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही वन्दनीय हैं।
गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञछ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैवभुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्
।। ५।।
गुरुन् – गुरु जनों को ; अहत्वा – न मार कर; हि – निश्चय ही; महा-अनुभवान् – महान अनुभवी; श्रेयः – अच्छा है; भोक्तुम् – भोगना; भैक्ष्यम् – भीख माँगकर; अपि – भी; इह – इस जीवन में; लोके – इस संसार में; हत्वा – मारकर; अर्थ – लाभ भी; कामान् – काम से; तु – लेकिन; गुरुन् – गुरु जनों को ; इह – इस संसार में; एव – ही; भुञ्जीय – भोगना पड़ेगा; भोगान् – भोगों को; रुधिर – रक्त से; प्रदिग्धान् – सने हुए।
भावार्थ:- इसलिए मैं अपने महानुभव गुरुजनों को न मारकर, इस लोक में भिक्षा माँगकर खाना अधिक कल्याणकारि समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रूधिर से प्राप्त हुए अर्थ तथा काम युक्त भोगों को ही तो भोगूँगा।
न चैतद्बिद्मः कतरन्नो गरीयो यद्बा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः
।। ६।।
न – नहीं ; च – भी; एतत् – यह ; विद्मः – जानते हैं; कतरत् – क्या हमारे लिये ; नः – हमको; गरीयः – श्रेष्ठ; यत् वा – अथवा; जयेम – हम जीत जाएँ; यदि – यदि; वा – या; नः – हमको; जयेयुः – वे जीतें; यान् – जिनको; एव – ही; हटवा – मारकर; न – कभी नहीं; जिजीविषामः – जी सकते हैं; ते – वे सब; अवस्थिताः – खड़े हैं; प्रमुखे – सामने ; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र ।
भावार्थ:- मैं यह भी नही जानता कि युद्ध करने और न करने में कौन उत्तम होगा, साथ ही यह भी नही जानता कि इस युद्ध मेंं हमलोग जीतेंगे या वेलोग। और जिन्हें मारकर हम जीना भी नही चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावःपृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रुहि तन्मेशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्
।। ७।।
कार्पण्य –कंजूसी के कारण; दोष – दुर्बलता से; उपहत – ग्रस्त; स्वभावः – गुण; पृच्छामि – मैं पूछ रहा हूं; त्वाम् – तुम से; सम्मूढ – मोहग्रस्त; चेताः – हृदय में; यत् – जो; श्रेयः – और भी बेहतर; स्यात् – हो; निश्र्चितम् – निश्चित रूप से; ब्रूहि – कहो; तत् – वह; मे – मुझको; शिष्यः – शिष्य; ते – तुम्हारा; अहम् – मैं; शाधि – उपदेश दीजिये; माम् – मुझको; त्वाम् – तुम्हारा; प्रपन्नम – शरणागत।
भावार्थ:- इसलिए कायरतायुक्त दोषों से उत्पन्न स्वभाव वाला तथा धर्म के सम्बन्ध के बारे में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि जो साधन निश्चित ही कल्याणकारक हो, कृपा कर वह मुझे बताइये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ।
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्
।। ८।।
न – नहीं; हि – निश्चय ही; प्रपश्यामि – मैँ इसे देखता हूँ; मम – मेरा; अपनुद्यात् – हटा सके ; यत् – जो; शोकम् – शोक; उच्छोषणम् – सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों को; अवाप्य – प्राप्त करके; भूमौ – पृथ्वी पर; असपत्नम् – शत्रुविहीन; ऋद्धम् – समृद्ध; राज्यम् – राज्य; सुराणाम् – देवताओं का; अपि – चाहे; च – भी; आधिपत्यम् – साम्राज्य।
भावार्थ:- क्योंकि मुझे ऐसा कोई भी उपाय नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। चाहे वह क्यों न निष्कण्टक भूमि, धन-धान्य से सम्पन्न राज्य तथा देवताओं का आधिपत्य ही हो।
संजय उचाव
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तुष्णीं बभूव ह
।। ९ ।।
सञ्जयः उवाच – संजय बोले ; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा – ऐसा कहने पर; हृषीकेशम् –ऋषिकेश (कृष्ण); गुडाकेशः – घुँघराले केश वाले (अर्जुन ) परंतपः – अर्जुन, तपस्या द्वारा इंद्रियों को वश में करनेवाला; न योत्स्ये – नहीं लडूँगा; इति – इस प्रकार; गोविन्दम् – हे गोविन्द ; उक्त्वा – कहकर; तुष्णीम् – चुप ; बभूव – हो होकर ; ह – ही।
भावार्थ:- संजय बोले – इस प्रकार कहने के बाद निद्रा को जीतने वाले अर्जुन भगवान कृष्ण से बोले , ” हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा, ” यह कहकर चुप हो गये।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। १०।।
तम् – वह; उवाच – बोले ; हृषीकेश – श्रीकृष्ण ने; प्रहसन् – हँसते हुए; इव – मानो; भारत – हे भरतवंशी धृतराष्ट्र (अर्जुन); सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों पक्षों की; मध्ये – बीच में; विषीदन्तम् – अवसादग्रस्त; इदम् – यह ; वचः – शब्द।
भावार्थ:- हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र) ! भगवान श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के बीच में अवसादग्रस्त अर्जुन को हँसते हुए यह वचन बोले।
द्वितीय अध्याय श्लोक ११ से २०
श्रीभगवान उवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। ११।।
श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान् बोले ; अशोच्यान् – जिस विषय में शोक योग्य नहीं है; अन्वशोचः – शोक करते हो; त्वम् – तुम; प्रज्ञावादान् – पाण्डित जैसी बातें; च – भी; भाषसे – कहते हो; गत – चले गये; असून् – जीवन ; अगत – नहीं गये; असून् – जीवन ; च – भी; न – नहीं; अनुशोचन्ति – शोक करते हैं; पण्डिताः – ज्ञानी लोग।
भावार्थ:- भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे अर्जुन ! तु न शोक करने योग्य व्यक्तियों केलिए शोक करता है और पण्डितजनों सी बातें को कहता है ; परन्तु पंडितजन (ज्ञानी) , वे न तो जीवित व्यक्तियों केलिए और न ही मृत व्यक्तियों केलिए शोक करते हैंं।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। १२।।
न – न ही ; तु – तुम ; एव – निश्चय ही; अहम् – मैं; जातु – किसी समय में; न – न ही ; आसम् – था; न – न ही ; त्वम् – तुम; न – न ही ; इमे – ये सब; जन-अधिपाः – राजा लोग ; न – न ही ; च – भी; एव – निश्चय ही; न – न ही ; भविष्यामः – भविष्य में रहेंगे; सर्वे – सभी ; वयमतः - हम इसलिए हैं, परम् – इससे आगे।
भावार्थ:- न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तुम नहीं थे या ये राजा लोग नही थे। निश्चय ही ऐसा भी नहीं है कि इससे आगे भविष्य में हम सब नहीं रहेंगें।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।। १३।।
देहिनः – शरीर प्राप्त हुए की ; अस्मिन् – इसमें; यथा – जिस प्रकार; देहे – शरीर में; कौमराम् – बाल्यावस्था; यौवनम् – युवावस्था ; जरा – वृद्धावस्था; तथा – उसी प्रकार; देह-अन्तर – शरीर के परिवर्तन की; प्राप् – उपलब्धि; धीरः – धीर व्यक्ति; तत्र – उस विषय में; न – कभी नहीं; मुह्यति – आकर्षण ( मोह ) को प्राप्त होता है।
भावार्थ:- जिस प्रकार जीवात्मा के इस शरीर में बाल्यावस्था , युवावस्था और वृधावस्था होती है, ठीक उसी प्रकार अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। इस विषय में धीर व्यक्ति मोहित नहीं होते हैं ।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। १४।।
मात्रा-स्पर्शाः – इन्द्रिय के विषय; तु – तुम ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; शीत – शरद ; उष्ण – गरम ; सुख – सुख; दुःख – दुख; दाः – देने वाले; आगम – आना; अपायिनः – जाना; अनित्याः – चलायमान हैं; तान् – उनको; तितिक्षस्व – सहन करने का प्रयास करो; भारत – हे भरतवंशी।
भावार्थ:- हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देनेवाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो क्षणिक हैं। इसलिए हे भारत इनको तुम सहन करो।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।। १५।।
यम् – जो ; हि – निश्चित रूप से; न – नहीं; व्यथ्यन्ति – परेशान होता ; एते – ये सब; पुरुषम् – व्यक्ति को; पुरुष-ऋषभ – हे पुरुषो में श्रेष्ठ ; सम – सामान; दुःख – दुख में; सूखम् – तथा सुख में; धीरम् – धीर व्यक्ति ; सः – वह; अमृतत्वाय – मोक्ष के लिए; कल्पते – योग्य है।
भावार्थ:- क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! जो व्यक्ति सुख तथा दुख में परेशान नहीं होता है और दोनों को ही समान समझता है । वैसे व्यक्ति निश्चित रूप से मोक्ष के योग्य है।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। १६।।
न – नहीं; असतः – भौतिक शरीर; विद्यते – है; भावः – भाव है; न – कभी नहीं; अभावः – छनभंगुर ; विद्यते – है; सतः – शाश्र्वत का; उभयोः – दोनो का; अपि – ही; दृष्टः – देखा गया; अन्तः – निष्कर्ष; तु – तुम ; अनयोः – इन दोनों में से; तत्त्व – सत्य के; दर्शिभिः – दूरदृष्टि रखने वाले के द्वारा।
भावार्थ:- तत्वज्ञानियों ने यह निष्कर्ष दिया है कि असत् वस्तु (भौतिक शरीर) तो स्थायी नहीं है और सत् (आत्मा) अमर है ।
अविनाशि तु तद्बिद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।। १७।।
अविनाशि – नाश नहीं होने वाला ; तु – लेकिन; तत् – उसे; विद्धि – जानो; येन – जिससे; सर्वम् – सब कुछ ; इदम् – यह; ततम् – फिर; विनाशम् – नाश; अव्ययस्य – अविनाशी का; अस्य – इस; न कश्र्चित् – कोई भी नहीं; कर्तुम् – करने के लिए; अर्हति – योग्य होना।
भावार्थ:- अविनाशी तो तुम उनको जानो , जो संपूर्ण जगत में व्यापत है। उस अविनाशी को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। १८।।
अन्त-वन्त – नाश होने वाला ;इमे – ये सब; देहाः – भौतिक शरीर; नित्यस्य – शाश्वत का ; उक्ताः – उल्लिखित; शरिरिणः – शरीर को प्राप्त हुए ; अनाशिनः – कभी नाश न होने वाला; अप्रमेयस्य – जिसे मापा न जा सके ; तस्मात् – अतः; युध्यस्व – युद्ध करो; भारत – हे भरतवंशी।
भावार्थ:- इस अविनाशी, अप्रमेय तथा नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये शरीर नाशवान हैं। इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! तुम युद्ध करो।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानितो नायं हन्ति न हन्यते।। १९।।
यः – जो; एनम् – इसको; वेत्ति – समझता है; हन्तारम् – मारने वाला; यः – जो; च – भी; एनम् – इसे; मन्यते – मानता है; हतम् – मरा हुआ; उभौ – दोनों; तौ – वे; न – कभी नहीं; विजानीतः – जानते है; न – नहीं; अयम् – यह; हन्ति – मारता है; न – नहीं; हन्यते – मारा जाता है।
भावार्थ:- जो इस जीवात्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा जानता है, वे दोनों ही नही जानते ; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है न ही किसी के द्बारा मारा जाता हैं।
न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। २०।।
न – नहीं; जायते – जन्मता है; म्रियते – मरता है; कदाचित् – कभी भी नहीं ; न – नहीं; अयम् – यह; भूत्वा – पूर्व में ; भविता – भविष्य में ; वा – अथवा; न – नहीं; भूयः – फिर से; अजः – अजन्मा; नित्य – नित्य; शाश्र्वत – स्थायी; अयम् – यह; पुराणः – सबसे प्राचीन; न – नहीं; हन्यते – मारा जाता है; हन्यमाने – मारा जाकर; शरीरे – शरीर में;
भावार्थ:- यह आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेता है और न ही मारा जाता है। यह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न ही जन्म लेगा । यह अजन्मा , नित्य , शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ।
द्वितीय अध्याय श्लोक २१ से ३०
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।। २१।।
वेद – वेद ; अविनाशिनम् – अक्षय; नित्यम् – शाश्र्वत; यः – जो; एनम् – इस आत्मा को ; अजम् – अजन्मा; अव्ययम् – निर्विकार; कथम् – कैसे; सः – वह; पुरुषः – पुरुष; पार्थ – हे पार्थ (अर्जुन); कम् – किसको; घातयति – मरवाता है; हन्ति – मारता है; कम् – किसको।
भावार्थ:- हे पार्थ (अर्जुन) ! जो व्यक्ति इस आत्मा को अविनाशी, अजन्मा , शाश्वत और अव्यव मानता है , वह व्यक्ति कैसे किसी को मार सकता है अथवा मरवा सकता है।
वासांसि जीर्णानि यथा विहायनवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। २२।।
वासांसि – कपड़े को; जीर्णानि – पुराने ; यथा – जिस प्रकार; विहाय – त्याग कर; नवानि – नए वस्त्र; गृह्णाति – ग्रहण करता है; नरः – मनुष्य; अपराणि – अन्य; तथा – उसी प्रकार; शरीराणि – शरीरों को; विहाय – त्याग कर; जीर्णानि – पुराने शरीर; अन्यानि – अन्य; संयाति – स्वीकार करता है; नवानि – नये; देही – शरीर को प्राप्त हुए ।
भावार्थ:- जैसे व्यक्ति पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को धारण करता है।ठीक उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दुसरे नये शरीरों को धारण करता है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। २३।।
न – कभी नहीं; एनम् – इस आत्मा को; छिन्दन्ति – काट सकते हैं; शस्त्राणि – हथियार; न – कभी नहीं; एनम् – इस आत्मा को; दहति – जला सकता है; पावकः – आग ; न – कभी नहीं; च – भी; एनम् – इस आत्मा को; क्लेदयन्ति – भिगो सकता है; आपः – जल; न – कभी नहीं; शोषयति – सुखा सकता है; मारुतः – हवा ।
भावार्थ:- यह आत्मा न तो किसी शस्त्र द्वारा काटा जा सकता है । न ही अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है। न ही जल इसे भिगा नहींं सकती और न ही वायु इसे सुखा सकती।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। २४।।
अच्छेद्यः – न काटने वाला; अयम् – यह आत्मा; अदाह्यः – जिसे जलाया न जा सके ; अयम् – यह आत्मा; अक्लेद्यः – जो पानी में घुलनशील न हो ; अशोष्यः – जिसे सुखाया न जा सके ; एव – निश्चय ही; च – तथा; नित्यः – शाश्र्वत; सर्व-गतः – सर्वव्यापी; स्थाणुः – अपरिवर्तनीय; अचलः – जड़; अयम् – यह आत्मा; सनातनः – सदा एक सा;
भावार्थ:- यह आत्मा अच्छेद्य (न भेदने योग्य ) , अदाह्य (न जलने योग्य), अक्लेद्य (न घुलने योग्य)और अशोष्य (न सुखने योग्य) है। यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अचल स्थिर और सनातन है।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।। २५।।
अव्यक्तः – जिसे बताया न जा सके ; अयम् – यह आत्मा; अचिन्त्यः – कल्पना से परे ; अयम् – यह आत्मा; अविकार्यः – अपरिवर्तित; अयम् – यह आत्मा; उच्यते – कहलाता है; तस्मात् – अतः; एवम् – इस प्रकार; विदित्वा – जानने; एनम् – इस आत्मा के बारे में; न – नहीं; अनुशोचितुम् – शोक करने के लिए; अर्हसि – योग्य हो।
भावार्थ:- यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और विकार रहित है। इसलिए हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपरोक्त प्रकार से जानकर तुम्हें शोक करना उचित नहीं है।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।। २६।।
अथ – फिर ; च – भी; एनम् – इस आत्मा को; नित्य-जातम् – सदा-जन्मा ; नित्यम् – सदा केलिए; व – अथवा; मन्यसे – तुम्हे ऐसा लगता है ; मृतम् – मृत; तथा अपि – फिर भी; तवम् – तुम; महा-बाहो – हे शूरवीर; न – नहीं; एनम् – आत्मा के विषय में; शोचितुम् – शोक करने के लिए; अर्हसि – योग्य हो;
भावार्थ:-किन्तु यदि तुम इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मान तो भी हे महाबाहो ! तुम्हें इस प्रकार सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। २७।।
जातस्य – जो जन्म लिया है ; हि – निश्चय ही; ध्रुवः – तथ्य है; मृत्युः – मृत्यु; ध्रुवम् – निश्चित रूप से; जन्म – जन्म; मृतस्य – मृतक का; च – भी; तस्मात् – अतः; अपरिहार्ये – अनिवार्य, उसका; अर्थे – के विषय में; न – नहीं; त्वम् – तुम; शोचितुम् – शोक करने के लिए; अर्हसि – योग्य हो।
भावार्थ:- क्योंकि इस तथ्य के अनुसार जो जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् जन्म निश्चित है। इसलिए तुम्हें इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करना उचित नहीं है।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधानान्येव तत्र का परिदेवना ।। २८।।
अव्यक्त-आदीनि – अव्यक्त-आदि; भूतानि – सारे प्राणी; व्यक्त – प्रकट; मध्यानि – मध्य में; भारत – हे भरतवंशी; अव्यक्त – अप्रकट; निधनानि – मौतें होने पर; एव – इस तरह से; तत्र – अतः; का – क्या; परिदेवना – शोक।
भावार्थ:- हे भरतवंशी (अर्जुन ) ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मृत्यु के पश्चात् भी अप्रकट हो जाएँगे, केवल बीच में ही प्रकट रहते हैं। अतः इस विषय में शोक करनें की क्या आवश्यकता है ?
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोतिश्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।। २९।।
आश्र्चर्यवत् – आश्र्चर्य की तरह; पश्यति – देखता है; कश्र्चित – कोई; एनम् – इस आत्मा को; आश्र्चर्यवत् – आश्र्चर्य की तरह; वदति – कहता है; तथा – जिस प्रकार; एव – निश्चय ही; च – भी; अन्यः – कोई ; आश्र्चर्यवत् – आश्र्चर्य से; च – और; एनम् – इस आत्मा को; अन्यः – कोई ; शृणोति – सुनता है; श्रुत्वा – सुनकर; अपि – भी; एनम् – इस आत्मा को; वेड – जानता है; न – नहीं; च – तथा; एव – निश्चय ही; कश्र्चित् – कोई व्यक्ति।
भावार्थ:- कोई इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और कोई इसका आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है। परन्तु कोई-कोई तो इसे सुनकर नहीं समझ पाता ।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।। ३०।।
देही - शरीर धारी ; नित्यम् - सदा ; अवध्यः - जिसे मारा नहीं जा सके; अयम् - यह आत्मा; देहे - शरीर में; सर्वस्य - सभी भारत - हे भारतवंशी; तस्मात् - अतः; सर्वाणि - समस्त; भूतानि - जीवों को ; न - कभी नहीं; त्वम् - तुम; शोचितुम् - शोक करने के लिए; अर्हसि - योग्य हो।
भावार्थ:- हे भरतवंशी ! यह आत्मा सभी शरीर में शाश्वत रूप से विद्यमान है तथा कभी न मारा जाने वाला है। इसलिए तुम्हें किसी भी प्राणी केलिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।
द्वितीय अध्याय श्लोक ३१ से ४०
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।। ३१।।
स्व-धर्मम् – अपने धर्म को; अपि – भी; च – और ; अवेक्ष्य – विचार करके; न – नहीं; विकम्पितुम् – संकोच करने के लिए; अर्हसि – तुम योग्य हो; धर्म्यात् – धर्म से ; हि – निस्सन्देह; युद्धात् – युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेयः – श्रेष्ठ साधन; अन्यत् – कोई दूसरा; क्षत्रियस्य – क्षत्रिय का; न – नहीं; विद्यते – मौजूद है।
भावार्थ:- अपने धर्म के अनुसार भी तुम्हें संकोच नहीं करना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय केलिए धर्मयुक्त युद्ध से बढकर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।। ३२।।
यदृच्छया – अपने आप से ; च – भी; उपपन्नम् – प्राप्त हुए; स्वर्ग – स्वर्गलोक का; द्वारम् – द्वार; अपावृतम् – खुला हुआ; सुखिनः – वो खुश हैं ; क्षत्रियाः – राजपरिवार के सदस्य; पार्थ – हे पृथापुत्र; लभन्ते – प्राप्त करते हैं; युद्धम् – युद्ध को; ईदृशम् – इस तरह।
भावार्थ:- हे पार्थ ! वे क्षत्रिय भाग्यवान हैंं जिन्हें इस प्रकार के युद्ध का सौभाग्य प्राप्त होता है। क्योंकि यह साक्षात खुले हुए स्वर्ग के द्बार के समान है।
अथ चेत्त्वमिमं धम्र्यां सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।। ३३।।
अथ – फिर; चेत् – चाहेंगे; त्वम् – तुम; इमम् – इस; धर्म्यम् – धर्म जैसा; संग्रामम् – युद्ध ; न – नहीं; करिष्यसि – करोगे; ततः – तब; स्व-धर्मम् – अपने धर्म के ; कीर्तिम् – यश को; च – भी; हित्वा – खोकर; पापम् – पापफल ; अवाप्स्यसि – प्राप्त करोगे।
भावार्थ:- किन्तु यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करोगे तो स्वधर्म और यश को खोकर पाप को प्राप्त होओगे।
अकीर्ति चापि भूतानिकथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-र्मरणादतिरिच्यते।। ३४।।
अकीर्तिम् – अपमान; च – भी; अपि – भी; भूतानि – सभी लोग; कथयिष्यन्ति – वे कहेंगे; ते – तुम्हारे; अव्ययाम् – अपयश, अपकीर्ति; मरणात् – मृत्यु से भी; अतिरिच्यते – अधिक होती है |
भावार्थ:- साथ ही सभी लोग तुम्हारी बहुत काल तक अपकीर्ति का कथन करेंगें जो सम्मानित व्यक्तियों केलिए मृत्यु से भी बढकर है।
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।। ३५।।
भयात् – डर (भय) से; रणात् – युद्धभूमि से; उपरतम् – विमुख; मंस्यन्ते – उन पर विचार किया जाएगा; त्वाम् – तुमको; महारथाः – बड़े-बड़े योद्धा; येषाम् – जिनके लिए; च – भी; त्वम् – तुम; बहु-मतः – बहु राय; भूत्वा – हो कर; यास्यसि – जाओगे; लाघवान् – तुच्छता को।
भावार्थ:- जिन महान योद्धाओं की दृष्टि में तुम पहले से बहुत सम्मानित हो , वे तुम्हें भय के कारण युद्धभूमि से हटा हुआ मानेंगे तथा तुच्छ समझेंगे।
अवाच्यवादांश्च बहुन्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामथ्र्यं ततो दुःखतरं नु किम् ।।३६।।
अवाच्य – अपशब्द ; वादान् – मिथ्या शब्द; च – भी; बहून् – बहुत सा ; वदिष्यन्ति – वे कहेंगे; तव – तुम्हारे; अहिताः – शत्रु; निन्दन्तः – निन्दा करते हुए; तव – तुम्हारी; सामर्थ्यम् – सामर्थ्य को; ततः – फिर; दुःख-तरम् – अधिक दुखदायी; नु – निस्सन्देह; किम् – और क्या है?
भावार्थ:- तुम्हारे वैरीलोग तुम्हारे सामथ्र्य की निंदा करेंगे और बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे। तुम्हारे लिए इससे अधिक दुःख क्या होगा?
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। ३७ ।।
हतः – मारे गए; वा – या तो; प्राप्स्यसि – तुम इसे प्राप्त करोगे ; स्वर्गम् – स्वर्गलोक को; जित्वा – विजयी होकर; वा – अथवा; भोक्ष्यसे – तुम आनंद उठाओगे; महीम् – पृथ्वी को; तस्मात् – अतः; उत्तिष्ठ – उठो; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; युद्धाय – लड़ने के लिए; कृत – दृढ; निश्र्चय – निश्चित रूप से।
भावार्थ:- हे कुन्तीपुत्र ! यदि तुम युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग को प्राप्त होओगे अथवा युद्ध को जीतकर पृथ्वी के साम्राज्य को भोगोगें। इसलिए दृढ संकल्पित होकर युद्ध केलिए खड़ा होओ।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। ३८।।
सुख – सुख; दुःखे – तथा दुख में; समे – समभाव से; कृत्वा – ऐसा करके; लाभ-अलाभौ – लाभ और हानि; जय-अजयौ – विजय और पराजय ; ततः – उसके बाद ; युद्धाय – युद्ध करने के लिए; युज्यस्व – में लगो ; न – नहीं; एवम् – इस प्रकार; पापम् – पाप; अवाप्स्यसि – तुम इसे प्राप्त होंगे।
भावार्थ:- सुख-दुःख , लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकर, फिर युद्ध केलिए तैयार होओ। इस प्रकार युद्ध करने से तुम पाप को प्राप्त नहीं होओगे।
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु *।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ।। ३९।।
एषा – यह सब; ते – तुम्हारे लिए; अभिहिता – वर्णन किया हूँ ; सांख्ये – सांख्ययोग द्वारा; बुद्धिः – बुद्धि; योगे – निष्काम कर्म में; तु – लेकिन; इमाम् – इसे; शृणु – सुनो; बुद्धया – बुद्धि से; युक्तः – साथ-साथ ; यया – जिससे; पार्थ – हे पृथापुत्र; कर्म-बन्धम् – कर्म के बन्धन से; प्रहास्यसि – मुक्त हो जाओगे।
भावार्थ:- हे पार्थ! यहाँ मैनेंं बुद्धि का वर्णन सांख्ययोग के द्वारा किया है अब मैं बुद्धि की व्याख्या कर्मयोग के द्बारा करने जा रहा हूँ। जिस बुद्धि को जानकर तुम कर्मो के बंधनों से मुक्त हो जाओगे।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। ४०।।
न – नहीं; इह – इस कर्मयोग में; अभिक्रम – करने में; नाशः – हानि; अस्ति – है; प्रत्यवायः – दोष ; न – कभी नहीं; विद्यते – है; सु-अल्पम् – थोडा; अपि – यद्यपि; धर्मस्य – धर्म का; त्रायते – मुक्त करना है; महतः – महान; भयात् – भय से।
भावार्थ:- इस कर्मयोग में न तो हानि होती है न ही फलरूप दोष लगता है , बल्कि इस कर्मयोग में थोड़ा सा भी साधन करने से यह जन्म-मृत्यु रूप भय से रक्षा करती है।
द्वितीय अध्याय श्लोक ४१ से ५०
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।। ४१।।
व्यवसाय-आत्मिका – मन, कर्मा और वचन तीनों से तीनों से श्रीकृष्णा में समर्पित; बुद्धिः – बुद्धि; एका – एकमात्र; इह – इस सृष्टि में; कुरु-नन्दन – हे कुरुओं के प्रिय; बहु-शाखाः – अनेक शाखाओं में विभक्त; हि – निस्सन्देह; अनन्ताः – जिसका कभी अंत न हो; च – भी; बुद्धयः – बुद्धि; अव्यवसायिनाम् – जो श्रीकृष्ण में लीन नहीं हैं उनकी।
भावार्थ:- हे अर्जुन ! इस कर्मयोग पर जो चलते है उनकीं बुद्धि दृढ होती है और उनका लक्ष्य भी एक ही होता है ,किन्तु जिनका कर्म निश्चित नही है एवं जिनके विचार अनिश्चित है ऐसे विवेकहीन मनुष्य की बुद्धियाँ अनंत होती है।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। ४२।।
याम् इमाम् – ये सब; पुष्पिताम् – दिखावटी ; वाचम् – शब्द; प्रवदन्ति – कहते हैं; अविपश्र्चितः – बेहोश व्यक्ति; वेद-वाद-रताः – वेदों के अनुयायी; पार्थ – हे पार्थ; न – कभी नहीं; अन्यत् – अन्य कुछ; अस्ति – है; इति – इस प्रकार; वादिनः – बोलते हैं। ;
भावार्थ:- हे पार्थ ! अपज्ञानी व्यक्ति वेदों के उन वाक्यों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं , जिसमें स्वर्ग को ही परम प्राप्य वस्तु और स्वर्ग से बढकर दूसरी कोई वस्तु है ही नही ऐसा शोभायुक्त दिखावटी बातों का वर्णन किया गया है ।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।। ४३।।
काम-आत्मनः –स्व इच्छा की; स्वर्ग-पराः – स्वर्ग प्राप्ति को चाहने वाले ; जन्म-कर्म-फल-प्रदाम् – जन्म तथा सकाम कर्मफल प्रदान करने वाला; क्रिया-विशेष – बढ़ा चढ़ाकर ; बहुलाम् – विविध; भोग – इन्द्रियतृप्ति; ऐश्र्वर्य – तथा ऐश्र्वर्य; गतिम् – प्रगति; प्रति – की ओर।
भावार्थ:- जो कि उत्तम जन्म और कर्मफलों को देनेवाला एवं इन्द्रियतृप्ति तथा स्वर्ग प्राप्ति केलिए विविध प्रकार की क्रियाओंं का वर्णन करने वाली है।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।
भोग – भौतिक भोग; ऐश्र्वर्य – तथा ऐश्र्वर्य के प्रति; प्रसक्तानाम् – आसक्तों के लिए; तया – ऐसी चीजों से; अपहृत-चेत्साम् – मोह्ग्रसित व्यक्ति ; व्यवसाय-आत्मिकाः – दृढ़ निश्चय वाली; बुद्धिः – भगवान् की भक्ति; समाधौ – नियन्त्रित मन में; न – कभी नहीं; विधीयते – निर्धारित है।
भावार्थ:- ऐसी वाणी द्वारा जिनका चित हर लिया गया है, जो व्यक्ति भोग तथा एश्वर्य के प्रति अत्यन्त आसक्त है । वैसे व्यक्ति की बुद्धि परमात्मा में स्थिर नहीं रहती है ।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निद्विन्दो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।। ४५।।
त्रै-गुण्य – तीनों गुणों से युक्त ; विषयाः – विषयों में; वेदाः – वैदिक ; निस्त्रै-गुण्यः – तीनों गुणों से परे; भव – होओ; अर्जुन – हे अर्जुन ; निर्द्वन्द्वः – द्वैतभाव नहीं है ;नित्य-सत्त्व-स्थः – नित्य शुद्धसत्त्व में स्थित; निर्योग-क्षेमः – निर्वहन-सुरक्षा से मुक्त ; आत्म-वान् – आत्मा में स्थित।
भावार्थ:- हे अर्जुन ! वेदों में मुख्यतः प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन किया गया है। इन तीनों से ऊपर उठों। इसलिए तुम द्वैतभाव से मुक्त , नित्य परमात्मा में स्थित , योग-क्षेम को न चाहने वाला और आत्म-परायण बनो।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्रह्मणस्य विजानतः।। ४६।।
यावान् – जितना सारा; अर्थः – मतलब; उद-पाने – जलकूप में; सर्वतः – सभी प्रकार से; सम्लुप्त-उदके – विशाल जलाशय में; तावान् – उसी तरह; सर्वेषु – सभी; वेदेषु – वेदों में; ब्राह्मणस्य – ब्रह्म को जानने वाले का; विजानतः – ज्ञानी का।
भावार्थ:- सभी प्रकार से परिपूर्ण विशाल जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है , ब्रह्म को वास्तविक रूप से जानने वाले ब्रह्मण का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। ४७।।
कर्मणि – कर्म करने में; एव – अवश्य ही; अधिकारः – अधिकार; ते – तुम्हारा; मा – कभी नहीं; फलेषु – फलों में; कदाचन – कभी नहीँ; मा – कभी नहीं; कर्म-फल – कर्म का फल; हेतुः – कारण है; भूः – होओ; मा – कभी नहीं; ते – तुम्हारी; सङ्गः- आसक्ति; अस्तु – हो; अकर्मणि – कर्मो को न करने में।
भावार्थ:- तुम कर्म(कर्तव्य) करने के ही अधिकारी हो , उसके फलों का कभी नहीं। इसलिए तुम अपने आप को कर्मों के फलों का कारण मत मानो, तथा न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। ४८।।
योगस्थः – सामान भाव रखकर ; कुरु – करो; कर्माणि – अपने कर्म; सङ्गं – आसक्ति को; त्यक्त्वा – त्याग कर; धनञ्जय – हे धनंजय; सिद्धि-असिद्धयोः – सफल या विफल होने में; समः – समभाव; भूत्वा – होकर; समत्वम् – समता; योगः – योग; उच्यते – कहा जाता है।
भावार्थ:- हे धनञ्जय(अर्जुन) ! तुम आसक्ति को त्यागकर तथा कर्मों के सफल या विफल होने में समभाव होकर अपने कर्तव्य कर्मों को करो, यही समत्व योग नाम से जाना जाता है।
दुरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। ४९।।
दूरेण – दूर से ही ; हि – अवश्य ही; अवरम् – निन्दनीय ( गलत ); कर्म – कार्य ; बुद्धि-योगात् – बुद्धि के मेल से ; धनञ्जय – हे धनंजय (धन को जीतने वाले; बुद्धौ – ऐसी चेतना में; शरणम् – पूर्ण रूप से समर्पित, आश्रयः; अन्विच्छ – प्रयास करो; कृपणा – कंजूस व्यक्ति (मानसिक रूप से बीमार); फल-हेतवः – सकाम कर्म को करने वाले।
भावार्थ:- हे धनंजय ! इस समत्व बुद्धियोग के द्वारा निश्चय ही निन्दनीय कर्मो से दूर रहो और इस बुद्धि योग में ही पूर्ण समर्पण करो; क्योंकि कर्मफलोंं की इच्छा वाले अत्यन्त ही कंजूस(मानसिक रूप से बिमार) है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।। ५०।।
बुद्धि-युक्ताः – भक्ति में लगे रहकर ; हि – अवश्य ही; फलम् – फल; त्यक्त्वा – त्याग कर; मनीषिणः – बड़े-बड़े ऋषि मुनि या भक्तगण; जन्म-बन्ध – जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से; विनिर्मुक्ताः – मुक्त; पदम् – पद पर; गच्छन्ति – पहुँचते हैं; अनामयम् – बिना कष्ट के।
भावार्थ:- समत्व योग में प्रयत्नशील व्यक्ति पुण्य और पाप दोनों से मुक्त हो जाता है । इसलिए तुम समत्व रूप योग में लग जाओ ; क्योंकि यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मो के बंधन से मुक्त होने का उपाय है।
*जो सभी स्थिति में समान व्यवहार करता है। चाहे कर्मों का फल उसके अनुकूल हो या प्रतिकुल ; सभी में सम।
द्वितीय अध्याय श्लोक ५१ से ६०
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।। ५१।।
कर्म-जम् – कर्मों से उत्पन्न ; बुद्धि-युक्ताः – बुद्धि से युक्त (भक्त ) ; हि – अवश्य ही; फलम् – फल; त्यक्त्वा – त्याग कर; मनीषिणः – बड़े-बड़े ऋषि मुनि ; जन्म-बन्ध – जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से; विनिर्मुक्ताः – मुक्त होकर ; पदम् – पद पर; गच्छन्ति – प्राप्त होते हैं; अनामयम् – बिना कष्ट के।
भावार्थ:- इस तरह समबुद्धि से युक्त ऋषि, मुनि और बुद्धिमान व्यक्ति कर्मों से उत्पन्न फलों को त्यागकर इस जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर ; बिना किसी कष्ट के परमपद को प्राप्त होते है।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिवर्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। ५२।।
यदा – जब; ते – तुम ; मोह – मोह ; कलिलम् – घने बदलो को; बुद्धिः – बुद्धि के द्वारा ; वयतितरिष्यति – पार कर जाओगे ; तदा – उस समय; गन्ता असि – तुम जाओगे; निर्वेदम् – विरक्ति को; श्रोतव्यस्य – सुनने योग्य के प्रति; श्रुतस्य – सुने हुए का; च – भी।
भावार्थ:- जिस समय में तुम्हारा बुद्धि मोह रूपी घने बादलों को