Vishwaroopa
Darshana Yoga Shrimad Bhagwat Geeta Chapter 11 |” विश्वरूपदर्शनयोग “
श्रीमद्भगवद्गीता
(Geeta) में ग्यारहवाँ अध्याय को विश्वरूप दर्शन योग (Vishwaroopa Darshana Yoga) नाम से जाना जाता है । इस अध्याय में अर्जुन के विनती करने पर भगवान् श्री कृष्ण ने अपने विराट स्वरूप का दर्शन दिए हैं । साथ ही भयभीत अर्जुन को युद्ध के लिए प्रोत्साहित किये हैं । इस अध्याय में श्रीकृष्ण भगवान् ने अपने विश्वरूप, चतुर्भुज रूप और सौम्यरूप का भी दर्शन दिए है। और उनसे प्राप्त होने वाले लाभ का भी वर्णन किया है।
अध्याय ग्यारह – विश्वरूपदर्शनयोग
श्लोक १ से ५
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ।।१।।
भावार्थ : अर्जुन बोले – आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक ज्ञान दिया है, उसे जानकार मेरा अज्ञान ( मोह ) नष्ट हो गया है ।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ।।२।।
भावार्थ : हे कमलनेत्र ! मैंने आपसे जीवों की उपपत्ति और प्रलय विस्तार से सुना है । साथ ही आपकी अविनाशी महिमा भी सुना है ।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ।।३।।
भावार्थ : हे परमेश्वर ! आप अपने बारे में जैसा कहते है, ठीक वैसा ही है; किन्तु हे पुरुषोत्तम ! अब में आपके प्रत्यक्ष रूपों को देखना चाहता हूँ, जिसमें यह सम्पूर्ण जगत स्थित है ।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ।।४।।
भावार्थ : हे प्रभु ! यदि मैं आपका विश्वरूप देखने में सक्षम हूँ, तो मुझ पर कृपा करें । हे योगेश्वर मुझे अपने विश्वरूप का दर्शन दीजिए ।
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।।५।।
भावार्थ : भगवन श्रीकृष्ण बोले ! अब तुम हमारे सैकड़ो- हजारों नाना रूप, रंग तथा आकृति वाले रूपों को देखों ।
श्लोक ६ से १०
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ।।६।।
भावार्थ : हे भारतवंशी (अर्जुन ) ! तुम मुझमें आदित्यों के 12 पुत्रों को, 8 वसुओं को , 11 रुद्रों को , अश्वनीकुमारों को और 49 मरुतों को देखो तथा और भी बहुत कुछ जो तुम आज से पहले नहीं देखे होंगे , उनको देखो ।
Shrimad
Bhagwat Geeta In Hindi
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ।।७।।
भावार्थ : हे अर्जुन ! तुम इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड को इस मेरे विराट स्वरुप में एक जगह स्थित देखों ; और भी बहुत कुछ जो तुम देखना चाहते हो , उनको देखो ।
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ।।८।।
भावार्थ : लेकिन तुम मुझे अपने इस नेत्रों द्वारा देखने में सक्षम नहीं हो; इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूँ जिससे तुम मेरे इस अलौकिक रूप को देख सकोगे ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ।।९।।
भावार्थ : संजय बोले ! हे राजा ! महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने यह वचन बोलते हुए ; अपने दिव्य स्वरुप का अर्जुन को दर्शन कराया ।
श्लोक ११ से १५
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ।।१०।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ।।११।।
भावार्थ : अर्जुन ने उस विराट स्वरुप में कई मुख और नेत्रों से युक्त तथा अनेक आश्चर्यमय दृश्यों को देखा । बहुत से दिव्य आभूषण से युक्त तथा बहुत सरे शस्त्रों को हाथो में उठाए हुए थे ! दिव्य माला और वस्त्र पहने हुए और दिव्य सुगंधियों का शरीर में लेप किए हुए , आश्चर्ययुक्त , असीम, सभी ओर मुख किए हुए विराट स्वरुप को देखा ।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ।।१२।।
भावार्थ : आकाश में यदि हजारों सूर्य एक साथ उदय हो तो भी वह विराट स्वरुप के तेज़ के समान नहीं होता ।
Shrimad
Bhagwat Geeta In Hindi
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।।१३।।
भावार्थ : अर्जुन ने उस विराट स्वरुप में विभिन्न प्रकार से विभक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखा ।
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ।।१४।।
भावार्थ : उसके बाद अर्जुन आश्चर्यचकित होकर हर्ष से दोनों हाथों को जोड़ तथा सिर से प्रणाम कर यह बोले ।
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ।।१५।।
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे भगवान ! मैं आपके शरीर में सभी देवताओं को , अनेक जीवों के समुदाय को देख रहा हूँ । साथ ही कमल के आसान पर विराजमान ब्रह्मा, विष्णु ओर महेश को तथा सम्पूर्ण ऋषियों ओर दिव्य सर्पों को देखता हूँ ।
श्लोक १६ से २०
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप !!१६।।
भावार्थ : हे ब्रह्माण्ड के स्वामी ! मैं आपको अनेक भुजा ,पेट , मुख ओर नेत्रों तथा सभी ओर से असीम रूप वाला देख रहा हूँ । हे विश्वरूप ! आप में न अंत दिखता है , न मध्य ओर न ही आदि दिखता है ।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ।। १७।।
भावार्थ : आपको मैं मुकुटयुक्त , गदा धारण किए हुए औऱ चक्रयुक्त देखता हूँ । साथ ही आपके अत्यंत तेज़ के कारण आपको देख पाना कठिन है; क्योकि वह जलता हुआ अग्नि की भांति तथा सूर्य के प्रकाश की भांति चरों औऱ से फैल रहा है ।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ।। १८।।
भावार्थ : आप ही अच्युत जानने योग्य परमेश्वर हैं । आपही इस ब्रह्माण्ड के आश्रय हैं ।आप अविनाशी ,धर्म के रक्षक औऱ सनातन पुरुष हैं ; ऐसा मेरा मत है ।
Shrimad
Bhagwat Geeta In Hindi
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ।। १९।।
भावार्थ : आपका आदि,मध्य तथा अंत नहीं हैं । आप अनंत सामर्थ्य वाले हैं । आपकी असंख्य भुजाएँ है औऱ आपकी आँखे सूर्य तथा चन्द्रमा के समान है । मैं आपके मुँह से अग्नि की लपटे औऱ आपके तेज़ से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को तपते देख रहा हूँ ।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ।। २०।।
भावार्थ : हे महात्मा ! आप बाह्य आकाश से लेकर पृथ्वी तक सभी दिशाएँ में एकमात्र आप ही व्याप्त हैं । आपके इस अलौकिक तथा भयंकर रूप को देखकर सभीलोग भयभीत हो रहे हैं ।
श्लोक २१ से २५
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ।। २१।।
भावार्थ : वे सभी देवताओं के समूह आपमें प्रवेश कर रहे हैं, उनमें से कुछ भयभीत हुए हाथ जोड़े हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं । इसी प्रकार महर्षिलोग तथा सिद्ध व्यक्ति भी कल्याण हो ऐसा कहकर दिव्य स्तोत्रों द्वारा आपके स्तुति कर रहे हैं ।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ।। २२।।
भावार्थ : वे सभी रूद्र, आदित्य ,वसु , साध्य , विश्वदेवता , अश्विनीकुमार ,मरुद्गण , पितृगण , गंधर्व ,यक्ष , असुर तथा सिद्धदेव आपको आश्चर्य पूर्वक देख रहे हैं ।
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ।। २३।।
भावार्थ : हे महाबाहों ! आपके अनेक मुख , नेत्रों , भुजाओं ,जंघाओं ,पैरों ,उदरों तथा बहुत सारी दांतों वाले विकराल रूप को देखकर सभी व्याकुल हो रहे है औऱ मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ ।
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ।। २४।।
भावार्थ : हे विष्णु ! बहुत सारे रंगों से युक्त , आकाश को स्पर्श करते हुए ,हाँथों को फैलाये हुए प्रदीप्त बड़ी-बड़ी आँखों को देखलार भयभीत हो रहा हूँ । मैं धैर्ये को नहीं धारण कर पा रहा हूँ न ही शांति को प्राप्त हो रहा हूँ ।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ।। २५।।
भावार्थ : हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप मुझ पर प्रसन्न हो । मैं आपके विकराल दांतों औऱ प्रलयकाल के समान प्रज्वलित अग्नि को आपके मुख में देख रहा हूँ ; जिससे मैं दिशाओं को नहीं जान पा रहा हूँ तथा आनंद को भी नहीं प्राप्त हो रहा हूँ ।
श्लोक २६ से ३०
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ।। २६।।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै ।। २७।।
भावार्थ : वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र , वीर राजाओं सहित, भीष्मपितामह , द्रोणाचार्य , कर्ण औऱ बहुत सारे हरारे प्रमुख योद्धा भी तेज़ी से आपके विकराल मुँह में प्रवेश कर रहे हैं । उनमें से कुछ के शिर आपके दांतों के बीच में चूर्ण हुए देख रहे हैं ।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ।। २८।।
भावार्थ : जिस प्रकार नदियों का जल स्वाभाविक ही समुद्र में प्रवेश करता हिन् , उसी प्रकार सभी योद्धा आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं ।
Shrimad
Bhagwat Geeta In Hindi
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ।। २९।।
भावार्थ : जिस प्रकार जलती हुए अग्नि में कीड़े ( पतिंगे ) प्रवेश करते है । ठीक उसी प्रकार सभी अपने विनध केलिए संपूर्ण वेग से आपके मुख में प्रवेश कर रहे हैं ।
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ।। ३०।।
भावार्थ : हे विष्णु ! उन सभी लोगों को आप अपने प्रज्वलित मुखों से निगले जा रहे है तथा सभी ओर से चाट भी रहे है । आपके उस तेज से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड झुलस रहा है ।
श्लोक ३१ से ३५
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ।। ३१।।
भावार्थ : हे देवेश ! इतने उग्ररूप में आप कौन है ? मैं आपको नमस्कार करता हूँ आप प्रसन्न हों । आदिपुरुष आपको मैं जानना चाहता हूँ तथा आपका क्या प्रयोजन हैं ।
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ।। ३२।।
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण बोले ! इस समय मैं इन सभी लोगों का नाश करने वाला महाकाल हूँ । इसलिए मैं यहाँ उपस्थित हूँ । जो भी पक्ष तथा विपक्ष के योद्धालोग है वे सभी मारे जाएगें अर्थात तुम्हारे युद्ध किए बिना भी इन सबका नाश हो जायगा ।
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।। ३३।।
भावार्थ : इसलिए तुम उठो ,युद्ध करो और यश को प्राप्त करो । अपने शत्रुओं को जीतकर धन- धान्य से सम्पन्न राज्यों को भोगों । ये सभी योद्धालोग पहले ही मारे जा चुके हैं । हे सव्यसाची ! तुम तो केवल निमित्तमात्र बन जाओं ।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ।। ३४।।
भावार्थ : द्रोणाचार्य , भीष्मपितामह , जयद्रथ , कर्ण तथा बहुत सारे योद्धाओं को मैं मार चुंका हूँ । अब उन योद्धाओं को रम मारो । भय मत करो निश्चय ही तुम्हें शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी । इसलिए तुम युद्ध करो ।
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ।। ३५।।
भावार्थ : संजय बोले – भगवान श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर अर्जुन काँपता हुआ हाथ जोड़कर भगवान को नमस्कार किया ! उसके बाद भयभीत होकर धीमे स्वर में भगवान श्रीकृष्ण से कहाँ ।
श्लोक ३६ से ४०
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा: ।। ३६।।
भावार्थ : अर्जुन बोले – हे हृषीकेश ! आपके नाम , गुण, और कीर्ति से सारा संसार हर्षित हो रहा है और अनुराग को प्राप्त हो रहा है । सभी सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे है तथा राक्षस लोग भयभीत होकर इधर-उधर भाग रहे है ।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।। ३७।।
भावार्थ : हे महात्मा ! क्यों न वे आपसे नमस्कार करे; आप ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ है । हे अनंत ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप अविनाशी , कारणों के कारण तथा दिव्य स्वरुप हैं ।
Shrimad
Bhagwat Geeta In Hindi
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ।। ३८।।
भावार्थ : आप आदिदेव , सनातन पुरुष हैं , आप इस ब्रह्माण्ड के परम आश्रय है , सब कुछ जाननेवाले , जाननेयोग्य और परमधाम हैं । हे अनंत रूप! यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपमें स्थित है ।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ।। ३९।।
भावार्थ : आप वायु , यमराज , अग्नि , जल , चन्द्रमा ,ब्रह्मा और प्रपितामह है । इसलिए मैं आपको हजारों बार नमस्कार करता हूँ । फिर भी मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ ।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ।। ४०।।
भावार्थ : हे अनंत सामथ्र्ययुक्त ! आपको आगे, पीछे और सभी और से नमस्कार हैं । क्योंकि आप परम पराक्रमशाली हैं । सारा संसार आप में स्थित है और आप ही सब कुछ है।
श्लोक ४१ से ४५
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।। ४१।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ।। ४२।।
भावार्थ : मैंने आपको मित्र मानते हुए हे कृष्ण ! हे यादव, हे सखा ! इस प्रकार हठपूर्वक कई बार पुकारा है । क्योंकि मैं आपकी महिमा का नहीं जनता था । मैंने अज्ञानवश हम प्रेम वश कई बार आपको आराम करते हुए , लेते हुए भोजन करते हुए , अकेले बैठे हुए मित्रों के समक्ष अनादर किया है । हे अच्युत मेरे सभी अपराधों को माफ करें ।
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ।। ४३।।
भावार्थ : आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पिता है । आप गुरु तथा परम पूज्य है । हे अनंत शक्तिशाली ! तीनों लोकों में आपके समान कोई नहीं है । फिर आपसे अधिक कैसे हो सकता हैं ।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ।। ४४।।
भावार्थ : अतः हे प्रभु ! मैं अपने शरीर को पूर्णरूप से आपके चरणों में अर्पित करके प्रणाम करता हूँ । तथा आपसे विनती करता हूँ कि आप प्रसन्न हो । पिता जैसे पुत्र के, मित्र जैसे मित्र के, पति जैसे पत्नी के अपराध को क्षमा करते है । उसी प्रकार आप मेरे अपराध को क्षमा करे।
Shrimad
Bhagwat Geeta In Hindi
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ।। ४५।।
भावार्थ : मैं पहले कभी नहीं देखे हुए आपके इस विराट स्वरुप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ । साथ ही मेरा मन अत्यंत भयभीत